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रंगनाथ सिंह का ब्लॉग: चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से भारतीय माओवादी क्या सबक ले सकते हैं?

By रंगनाथ सिंह | Published: July 02, 2021 2:40 PM

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने एक जुलाई 2021 को अपनी पार्टी की स्थापना के 100 साल पूरे होने पर बड़े जश्न का आयोजन किया। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 1921 में हुई थी।

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ठळक मुद्देचीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग चीनी राष्ट्रवाद का चेहरा बन चुके हैं।चीन का सरकार नियंत्रित पूँजीवादी मॉडल देश की तरक्की का आधार है।

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के कल 100 साल पूरे हुए। भारत में इसकी उतनी धमक नहीं सुनायी दी। एक अंग्रेजी अखबार में इस इवेंट का फुलपेज विज्ञापन दिखा। शायद कुछ और अखबारों को चीनी दूतावास ने ऐसा विज्ञापन दिया हो। विज्ञापन के अलावा इस मौके पर भारतीय मीडिया में चीन और शी जिनपिंग को लेकर ज्यादा उत्साह नहीं दिखा। मेरे ख्याल से यह मौका है जब हमें भारतीय  माओवाद के बारे में खुलकर कुछ बातें करनी चाहिए।

चीन की आजादी के नायक और कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग के नाम पर बनी माओवादी पार्टी भारत के एक हिस्से में काफी असर रखती है। भारतीय माओवादी बंदूक की नाल से सत्ता लेने के माओ के जुमले पर आज भी यकीन रखते हैं। केंद्रीय गृह मंत्रालय के साल 2017 के आंकड़े के अनुसार उसके पीछे के दो दशकों में भारतीय माओवादियों ने 12 हजार लोगों की हत्या की। इनमें 2700 सुरक्षाबल थे। 

फिलहाल इस बात के कोई आसार नजर नहीं आ रहे कि माओवादी बंदूक का रास्ता छोड़कर मतपेटी का रास्ता अपनाने पर विचार कर रहे हैं। ज्यादातर प्रगतिशील बुद्धिजीवी यही मानते हैं कि माओवादी प्रभावित आदिवासी इलाकों में असहाय आदिवासी माओवादी और सुरक्षाबल दोनों के हाथों प्रताड़ित होते हैं।

भारत में दो तरह के कम्युनिस्ट

किसी भी सरकार के लिए यह सम्भव नहीं है कि वो किसी हथियारबन्द गुट के आगे हाथ खड़े कर ले। भारतीय माओवादी अच्छी तरह जानते हैं कि भारतीय सेना और सुरक्षाबलों के सामने  वो कभी निर्णायक जीत नहीं हासिल कर सकेंगे। फिलहाल इस बात के भी आसार नजर नहीं आ रहे कि माओवादी जंगली इलाकों से बाहर कोई जनाधार बना पाएँगे। कुल मिलाकर भारतीय माओवादी अपना अहंकार तुष्ट करने के लिए एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं।

चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन 1921 में हुआ। भारत में 1925 मे पहली कम्युनिस्ट पार्टी भाकपा बनी। शुरू के चार दशक तक यह पार्टी कमोबेश एकजुट होकर काम करती रही।  1964 में इसका एक बड़ा धड़ा अलग होकर माकपा के रूप में सामने आया। उसके बाद से कई कम्युनिस्ट गुट बनते गये।

वर्तमान में भारत में दो तरह के कम्युनिस्ट दल हैं। एक संसदीय और दूसरे हथियारबन्द संघर्ष वाले। संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियाँ अब अक्सर लेफ्ट फ्रंट के साझा झण्डे तले चुनाव लड़ती हैं। केरल में लेफ्ट फ्रन्ट सत्ता में है।

हथियारबन्द कम्युनिस्टों के दो सबसे बड़े गुटों पीपल्स वार ग्रुप और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर ने साल 2004 में आपस विलय करके माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी बनायी। यह हथियारबन्द संगठन भारत सरकार को हलकान जरूर रखता है लेकिन वह भारतीय सेना के आगे हर लिजा से बहुत कमजोर है।

चीन का माओवादी और राष्ट्रवाद

भारतीय माओवादी मानते हैं कि चीन माओवाद के पथ से भटक चुका है लेकिन चीन का विकास मॉडल इस समय दुनिया में चर्चा का विषय है। चीन अमेरिका के टक्कर की आर्थिक महाशक्ति बन चुका है। चीन में पिछले सत्तर साल से एक पार्टी की तानाशाही वाली सरकार है। चीन सरकार के नियंत्रण वाले पूँजीवादी मॉडल पर चलकर यहाँ तक पहुँचा है। 

आर्थिक महाशक्ति बनने के साथ ही चीन ने अपने भौगोलिक विस्तार में खतरनाक रुचि लेने शुरू की है जो पूरी दुनिया के लिए चिन्ता का विषय है। हॉन्गकॉन्ग और ताइवान को चीन कुचल देना चाहता है।

भारत विरोधी भूराजनीति में भी वह काफी सक्रिय है। समुद्री इलाके में भी वह दरार खोजकर उसे खाई बनाने में लगा हुआ है। पैसे के दम पर छोटे देशों को आर्थिक उपनिवेश बना रहा है। चीन ने पिछले कुछ दशकों में तिब्बत का जनसंख्या संतुलन बदल दिया। शिनजियांग के वीगर मुसलमानों को लेकर चीनी प्रशासन का रुख दमनकारी है।

चीन की इन नीतियों की रोशनी में यह साफ नजर आता है कि चीन कम्युनिस्ट नहीं बल्कि राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रेरित है। सरकार नियंत्रित पूँजीवाद और चीनी राष्ट्रवाद चीन के मौजूदा सत्ता के दो मुख्य आधार हैं।

मेरे ख्याल से, भारतीय माओवादियों को चीनी विकास से सबक लेना चाहिए। अगर भारतीय माओवादी यह समझते हैं कि भारत की मौजूदा सरकारी नीतियाँ जनविरोधी हैं तो उन्हें समर्पण करके लोकतांत्रिक तरीके से जनता दरबार में हाजिर होना चाहिए। तभी वो उन लोगों के  जीवन को बेहतर बना पाएँगे जिनके लिए वो लड़ने का  दावा करते रहे हैं।

 

टॅग्स :चीनमाओवाली
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