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धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला: नरेंद्र मोदी, अमित शाह और अरुण जेटली ने चुप्पी क्यों साध रखी है?

By रंगनाथ सिंह | Published: September 07, 2018 6:08 PM

सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलैंगिकता को गैर-आपराधिक घोषित किये जाने के बाद आरएसएस प्रवक्ता ने कहा कि समानलिंगी लोगों के बीच विवाह "प्रकृति के मानकों" के खिलाफ है और हम रिश्तों का समर्थन नहीं करते।

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छह सितंबर का दिन भारत के लिए ऐतिहासिक रहा। सुप्रीम कोर्ट की पाँच जजों की संविधान पीठ ने समलैंगिकता को अपराध बनाने वाली भारतीय दण्ड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 को असंवैधानिक करार दिया। 

देश के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व वाली पीठ ने समलैंगिकता को अपराध बनाने वाले कानून को संविधान के अनुच्छेद 14 के खिलाफ माना। अनुच्छेद 14 के तहत देश के सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता का अधिकार हासिल है। शीर्ष अदालत ने अपने संगेमील फैसले में कहा कि किसी भी व्यक्ति को उसके यौन रुझान के आधार पर अपराधी नहीं ठहराया जा सकता।

सर्वोच्च अदालत का फैसला आते ही कई मशहूर हस्तियों ने सोशल मीडिया पर इसका स्वागत किया। समलैंगिकता को कानूनी मान्यता देने वाले इस फैसले पर समलैंगिकों के बाद सबसे ज्यादा ताली बॉलीवुड सेलेब्स ने बजायी। उसके बाद नम्बर बुद्धिजीवियों का आता है। राजनीतिक दलों में शायद सबसे पहले कांग्रेस ने इस फैसले का स्वागत किया। 

कांग्रेस के आधिकारिक ट्विटर हैंडल पर इस फैसले को लम्बे समय से लम्बित बताते हुए "LGBTQAI + समुदाय के दोस्तों के साथ इस ख़ुशी का जश्न मनाने" की बात कही गयी। शशि थरूर जैसे कांग्रेस नेताओं ने भी इस फैसले का स्वागत किया। लेकिन हैरानी की बात है कि केंद्र समेत डेढ़ दर्जन से अधिक राज्यों में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने इस ऐतिहासिक फैसले पर लगभग चुप्पी साधे रखी। 

सोशल मीडिया पर हाइपर-एक्टिव रहने वाली बीजेपी के ट्विटर हैंडल (@BJP4India) से इस मुद्दे पर एक भी ट्वीट नहीं था। न पक्ष में, न ही विपक्ष में। बीजेपी के आधिकारिक ट्विटर हैंडल पर कल से अब तक करीब एक दर्जन ट्वीट किये गये हैं लेकिन 377 और समलैंगिकता जैसे टॉप ट्रेंड पर एक भी ट्वीट नहीं है। 

देश के सबसे ज्यादा ट्विटर फॉलोवर वाले शख्सियत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अब तक समलैंगिकता को गैर-आपराधिक बनाने पर एक भी ट्वीट नहीं किया। पीएम मोदी पर कई बार अहम मुद्दों पर चुप्पी साधने का आरोप लगता रहा है। ऐसे में पीएम मोदी की  धारा 377 को रद्द करने पर चुप्पी के भी कई अर्थ निकाले जाएंगे।

पीएम मोदी के बाद देश के दूसरे सबसे शक्तिशाली शख्स माने जाने वाले बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के भी आधिकारिक ट्विटर हैंडल पर धारा 377 को रद्द किये जाने या समलैंगिकता को गैर-आपराधिक करार दिये जाने पर कोई ट्वीट नहीं किया गया। 

समलैंगिकता के समर्थक माने जाने वाले जेटली भी चुप हैं

पीएम मोदी  और अमित शाह के बाद केंद्र सरकार में तीसरे सबसे ताकतवर हस्ती माने जाने वाले वित्त मंत्री अरुण जेटली के आधिकारिक ट्वीट पर भी समलैंगिकता पर आये फैसले पर सन्नाटा छाया रहा।  जब सुप्रीम कोर्ट ने साल 2013 में दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को पलटते हुए समलैंगिकता को फिर से आपराधिक करार देते हुए इसे गैर-आपराधिक बनाने का जिम्मा केंद्र सरकार पर छोड़ दिया था तो जेटली ने अदालत के फैसले को प्रतिगामी बताया था।

जेटली को धारा 377 को रद्द करने का समर्थक माना जाता रहा है लेकिन कल जब संविधान पीठ ने फैसला सुनाया तो उसके बाद से जेटली के ट्विटर पर इस बारे में एक भी ट्वीट नहीं किया गया है।

बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव रहते हैं। ट्विटर पर वो कई बार अपने करारे और कई बार जाली या विवादित ट्वीट को लेकर सुर्खियों में रहते हैं। ट्विटर पर सुपर-एक्टिव अमित मालवीय ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इस मुद्दे पर एक भी ट्वीट नहीं किया है। 

अमित मालवीय ने भले ही कल से अब तक समलैंगिकता को गैर-आपराधिक बनाये जाने पर एक भी ट्वीट न किया हो, कुछ लोगों ने उनका साल 2013 का एक ट्वीट रीट्वीट किया है। दिसम्बर 2013 में अमित मालवीय ने समलैंगिकता के मुद्दे पर ट्वीट करते हुए पूछा था, "बस ये जानना चाहता हूँ कि कितने लोग समलैंगिक जोड़ों को अपने अपार्टमेंट में किरायेदार रखेंगे? अपने हाथ उठाएँ।" जाहिर है अमित मालवीय का पुराना ट्वीट सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले की भावनाओं के विपरीत प्रतीत होता है।

नरेंद्र मोदी सरकार को सुप्रीम कोर्ट का उलाहना

समलैंगिकता को गैर-आपराधिक बनाने के लिए नाज़ फाउंडेशन नामक एनजीओ की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने नरेंद्र मोदी सरकार से धारा 377 पर राय माँगी थी। मोदी सरकार ने इस मुद्दे पर कोई राय न देते हुए इसपर अंतिम फैसला सर्वोच्च अदालत के विवेक पर छोड़ दिया था।

ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान साल 1861 में लागू किये गये आईपीसी के इस प्रावधान को समाप्त करने के फैसले में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने मोदी सरकार की समलैंगिकता पर रुख न साफ करने पर तीखा तंज किया। संविधान पीठ में शामिल मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा और न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने फैसले में लिखा कि अगर  केंद्र सरकार इस मसले पर साफ रुख अख्तियार करती तो बेहतर होता 

समलैंगिकता पर आरएसएस की सधी हुई प्रक्रिया

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सबसे ज्यादा उत्सुकता लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की प्रतिक्रिया जानने की थी। बहुत से लोग मान के चल रहे थे कि पीएम मोदी, बीजेपी और केंद्र सरकार सर्वोच्च अदालत का रस्मी तौर पर ही सही स्वागत करेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। लोगों को चौंकाते हुए आरएसएस ने इस मुद्दे पर चुप्पी नहीं साधे रखी। आरएसएस के प्रवक्ता अरुण कुमार ने मीडिया को दिये बयान में कहा कि उनका संगठन समलैंगिकता को अपराध नहीं मानता। 

आरएसएस प्रवक्ता ने कहा कि "समानलिंगी लोगों के बीच विवाह "प्रकृति के मानकों" के खिलाफ है और हम रिश्तों का समर्थन नहीं करते। भारतीय समाज में भी ऐसे रिश्तों को स्वीकार करने की परंपरा नहीं है। मानव जाति सामान्य तौर पर अनुभव से सीखती है, इसीलिए इस मुद्दे से सामाजिक और मनोवैज्ञानिक रूप से निपटने की जरूरत है।"

समलैंगिकता पर क्या है भारतीय परम्परा?

धार्मिक और पौराणिक विषयों पर कई किताबें लिख चुके लेखक देवदत्त पटनायक ने अपने साल 2000 में अपने एक लेख में प्राचीन "भारत में समलैंगिकता" विषय पर शोधपरक निबन्ध लिखा था। इस निबन्ध में पटनायक ने बताया कि पुरी, तंजोर और खजुराहो जैसी प्राचीन धरोहरों पर बने चित्रों-मूर्तियों में महिलाओं और पुरुषों के बीच यौन सम्बन्ध के साथ ही समलैंगिक जोड़ों की भी मूर्तियाँ बनी हुई हैं।

पटनायक ने बताया कि खजुराहो में पुरुषों द्वारा एक दूसरे को अपने जननांग दिखाने वाली मूर्तियाँ और महिला के संग यौन सम्बन्ध बनाती हुई महिलाओं की मूर्तियाँ हैं। पटनायक के अनुसार खजुराहो में मनुष्यों द्वारा पशुओं के संग यौन सम्बन्ध दर्शाने वाली भी मूर्तियाँ बनी हैं।

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