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जन्मदिन विशेष: बिमल रॉय ने फिल्म 'दो बीघा जमीन' से इंसानी सपनों के यथार्थ को सिनेमा के पर्दे पर उकेरा था

By आशीष कुमार पाण्डेय | Published: July 12, 2023 9:59 AM

बांग्ला और हिन्दी सिनेमा के महान फिल्म निर्देशकों में से एक बिमल रॉय की फिल्में चकाचौंध और फंतासी से परे समाजिक मुद्दों पर बनी होती थीं।

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ठळक मुद्देबिमल रॉय सिनेमा के श्वेत-श्याम पर्दे पर मानवीय संवेदनाओं को अलग-अलग रंगों से भरते थेबिमल रॉय का जन्म तत्कालीन पूर्वी बंगाल के ढाका जिले में 12 जुलाई, 1909 को हुआ था बिमल रॉय की फिल्मों में दो बीघा जमीन, परिणीता, बिराज बहु, मधुमती और बंदिनी जैसी फिल्में शामिल हैं

नई दिल्ली: बिमल रॉय 50 के दशक में ऐसे फिल्मकार हुआ करते थे, जो बेहद खामोशी से सेल्युलाइड के पर्दे पर अपनी कल्पनाशीलता को भरते रहे। बिमल रॉय सिनेमा के श्वेत-श्याम पर्दे पर मानवीय संवेदनाओं को अलग-अलग रंगों से भरते हुए इंसानी सपनों और उसके उम्मीदों के बीच समाज के यथार्थवादी सच को उकेरा करते थे। बांग्ला और हिन्दी सिनेमा के महान फिल्म निर्देशकों में से एक बिमल दा की फिल्में चकाचौंध और फंतासी से परे समाजिक मुद्दों पर बनी होती थीं।

आज उन्हीं बिमल रॉय का जन्मदिन है। तत्कालीन पूर्वी बंगाल के ढाका जिले में 12 जुलाई, 1909 को पैदा हुए बिमल का नाता एक जमिंदार परिवार से था। सामंती युग और सामंती परिवार में जन्म लेने के बावजूद बिमल रॉय सिनेमा के पर्दे पर मजदूर, शोषित और समाज के हाशिये पर खड़े व्यक्ति का चरित्र चित्रण करते रहे। बिमल रॉय की फिल्मों में दो बीघा जमीन, परिणीता, बिराज बहु, मधुमती, सुजाता, परख और बंदिनी जैसी तमाम कालजयी फिल्में शामिल हैं, जिनके बारे में आगे बात करेंगे।

बिमल जमिंदार परिवार में भले पैदा हुए लेकिन पिता की मौत के बाद पैदा हुए पारिवारिक कलह के कारण उनकी जमीदारी चली गई। उसके बाद बिमल पढ़ाई करने के लिए कलकत्ता आ गये, जहां उन्होंने पहली बार सिनेमा जगत को देखा, समझा, परखा और बाद में उसी सिनेमा की दुनिया के होकर रह गये।

'दो बीघा जमीन' इतालवी फिल्म ‘बाइसिकिल थीव्स’ से प्रभावित थी 

बिमल रॉय की फिल्मों में नायक-नायिका बतौर हीरो-हीरोइन नहीं बल्कि समाज के आम आदमी की तरह दिखाई दिये। उनके फिल्मी पात्रों की वाबस्तगी आम लोगों से जुड़ी होती थी जिसमें समाज के हर एक रंग को दिखाने की कोशिश होती थी चाहे समाज में फैला जातिगत भेदभाव हो ,छूआछूत हो या फिर सामंती परंपरा हो। बिमल दा के सिनेमा में आज की तरह कमर्शियल पुट नहीं होता था बल्कि वो यथार्थवादी की धरातल पर जमी रहती थीं।

बिमल दा ने अपनी फिल्मों के जरिये हिंदी सिनेमा जगत में यथार्थवादी सिनेमा की मजबूत नींव रखी, जिसे बाद में मृणाल सेन, श्याम बेनेगल जैसे फिल्मकारों ने आगे बढ़ाया। बिमल दा हिंदी सिनेमा के पहले फिल्म निर्देशक थे, जिनकी फिल्मों ने भारतीय सिनेमा को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर न केवल पहचान दिलाई बल्कि सम्मान भी दिलाया। हम बिमल रॉय की ‘बंदिनी’, ‘सुजाता’, ‘मधुमती’, ‘देवदास’ और ‘दो बीघा ज़मीन को देखें तो वह उस समय की सामाजिक कुरीतियों और खामियों को सिनेमा के पर्दे पर उजागर करती है।

हालांकि उनके पंसदीदा लेखक हमेशा से शरत चंद्र रहे जिनके उपन्यास पर उन्होनें कई फिल्में बनाई, लेकिन आज हम चर्चा करेंगे बिमल दा की सबसे चर्चित क्लासिक फ़िल्म दो बीघा ज़मीन की,जो इटली के नवयथार्थवादी सिनेमा ख़ास तौर से विश्व प्रसिद्ध इतालवी निर्देशक वित्तोरियो द सिका की फिल्म ‘बाइसिकिल थीव्स’ से प्रभावित थी। इस फिल्म में बिमल रॉय का बेहतरीन निर्देशन, बलराज साहनी का उम्दा अभिनय, हृषिकेश मुखर्जी की बेहतरीन एडिटिंग और सलिल चौधरी के लेखन और संगीत का कमाल है कि इसकी कहानी आज भी पुरानी नहीं लगती है।

दो बीघा जमीन सामंतवाद, पूंजीवाद की हकीकत से रूबरू कराती है

भारतीय सिनेमा में फिल्म “दो बीघा ज़मीन” के इम्पैक्ट की बात करें तो यह निश्चित तौर पर कालजयी फ़िल्म है। भारत में किसानों का अस्तित्व बना रहेगा, तब तक फिल्म "दो बीघा जमीन" के सारे किरदार ज़िंदा रहेंगे। बिमल रॉय की यह फिल्म न केवल सामंतवाद ,पूंजीवाद की हकीकत से रूबरू कराती है बल्कि उस किसान के दर्द और अपनी ज़मीन को खो देने की उसकी टीस को भी दिखाती है, बिमल रॉय ने उसे बड़ी ही संजीदगी के साथ सिनेमा के पर्दे पर उतारा।

इस फिल्म का मुख्य किरदार शंभु यानि (बलराज साहनी) किसान है और वह जमींदार के कर्ज तले दबा हुआ है। फ़िल्म की शुरुआत शैलेंद्र और सलिल चौधरी के जुगलबंदी गीत ‘हरियाला सावन ढोल बजाता आया’ से होती है, जब दो वर्ष के लम्बे सूखे के बाद बारिश होती है और सारे गांव वाले पारंपरिक अन्दाज़ में बारिश का स्वागत नृत्य हुये करते हैं।

जब आप इस फिल्म को देखते हैं तो इसके गीत में महसूस कर सकते हैं कि किस तरह से बारिश से किसान के जीवन की डोर, खुशियां और उम्मीदें जुड़ी हुयी हैं। फ़िल्म का नायक शंभु अपनी पत्नी (निरूपा रॉय) से जब कहता है,”अब बारिश हो गई… बस फसल अच्छी हो जाए तो नाथूराम सोनार के पास से गिरवी रखी तेरी पायल की जोड़ी को छुड़ा लाऊं।” तो ऐसा लगता है मानों उम्मीदों के पंख लग गये हों लेकिन अगले ही फ्रेम में फिल्म में कहानी नया मोड़ लेती है, जब गांव का ज़मींदार अपनी नई मिल लगाने के लिये शहर के कुछ लोगों के साथ शंभु के खेत के पास पहुंचता है औऱ सोचता है कि वह शंभु को ज़मीन बेचने के लिए राज़ी कर लेगा।

फिल्म में शैलेंद्र के गीत मानवीय दुखों को बयां करती है

अगले ही दिन ज़मींदार के दरबार में शंभु की पेशी होती है और शंभु ज़मीन को अपनी मां कहकर ज़मीन बेचने से इंकार कर देता है तो ज़मींदार उसे धमकाते हुए कहता है या तो ज़मीन बेचो या मेरा दिया हुआ कर्जा वापस करो, बस यहीं से कहानी नया रंग लेती है। अपनी ज़मीन से दूर जाकर बड़े शहर में किसान शम्भु अपनी किस्मत को आज़माने जाता है वो भी महज़ 65 रुपए के कर्ज के लिये अपने गांव ,घर से दूर पलायन करता हुआ किसान कब अपने छोटे से बेटे के साथ बड़े से शहर में मज़दूर बन जाता है अब उसके हाथ में हल नहीं बल्कि रिक्शा गाड़ी है जिससे वो अपनी तकदीर को बदलने चला है।

गांव से निकलते वक़्त एक बेहतरीन गीत ‘धरती कहे पुकार के, मौसम बीता जाए’ ये उम्मीद दिलाता है कि शंभु वापस आयेगा और अपनी ज़मीन को छुड़ा लेगा। शहर में जीवन के लिए तमाम संघर्ष और उसके साथ ही दिन गिनते हुए पैसे बचाने और समय से कर्ज़ चुकाने का दबाव लेकिन विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी ईमानदारी को बरकरार रखने की बहुत सारी जद्दोजहद का फिल्मांकंन इस तरह से किया गया है कि आप भी अपने आप को उसके दर्द से अलग नहीं कर पायेंगे।

फ़िल्म के सबसे ख़बसूरत गीत ‘अजब तोरी दुनिया ओह मोरे रामा’ में शैलेंद्र का चिरपरिचित अंदाज जहां वो उस कहानी को एक ऐसा आयाम देते है जिसमें दर्द है, दुख है तकलीफ है और दुनिया की वो हकीकत है जहां मानवीय मूल्यों का कोई मोल नही है। यह गीत आपको बताता है कि मज़दूरों द्वारा बनाई गई इस दुनिया में मज़दूरों के लिए ही कोई जगह नहीं है। मज़दूरों का शोषण किस हद तक होता है और कब तक होता है। इस गीत के ज़रिये दिखाया गया है।

फ़िल्म में शंभु को 'दो बीघा ज़मीन' नसीब नहीं होती

शहर की घुटन भरी आबोहवा,मुफलिसी की मार शंभु पर इस कदर पड़ती है कि वो बीमार हो जाता है तब शंभु का बेटा अपनी मां को खत लिखता है कि बापू की तबियत बहुत ख़राब है, आप शहर आ जाओ…शंभु की पत्नी निरूपा रॉय अपने बीमार ससुर को छोड़कर शहर जाती है इस बात से अंजान कि ये शहर उसको निगल जाने वाला है वो शहर आते ही ग़लत आदमी के द्वारा शोषण की शिकार बनती है और अपने बचाव में भागते हुये सड़क पर बेहोश होकर गिर जाती है और जब हॉस्पिटल लेकर जाने के लिए लोग रिक्शा ढूंढ़ते हैं तो संयोग से शंभु वहां आ जाता है, जिसने कभी नहीं सोचा था कि शहर में पहली बार उसकी पत्नी की मुलाक़ात इस तरह से होगी।

शंभु 50 रुपए की रक़म किसी तरह जुटा कर अपने गांव पहुंचता है तो क्या देखता है कि उसकी ज़मीन नीलाम हो गयी है,उसके बुज़ुर्ग पिता की मौत हो गयी है औऱ इसकी छोटी सी दो बीघा ज़मीन पर एक मिल तन कर खड़ी है जो उसकी तकदीर पर तंज करती नज़र आती है। फिल्म के अंतिम सीन में जब वह कंटीले तारों के बीच से अंदर हाथ बढ़ाकर एक मुट्ठी मिट्टी उठाता है तो वहां पर पहरा दे रहा चौकीदार उसे चोर कहकर वह मिट्टी वहीं छोड़ने के लिए कहता है। फ़िल्म के आख़िर में इस तरह से शंभु को उसकी दो बीघा ज़मीन की एक मुट्ठी मिट्टी भी नसीब नहीं होती है।

भारत की सामाजिक रचना के परिवेश में फ़िल्म दो बीघा ज़मीन हर दौर की कहानी लगती है। फ़िल्म को कालजयी बनाने में निर्देशन, गीत, संगीत और अभिनय का बेहतरीन योगदान है ‘दो बीघा ज़मीन’ वाक़ई बिमल रॉय की एक शाहकार फ़िल्म है। जो सेल्युलाइड के पर्दे पर एक संवेदनशील कविता लिखती है यह बिमल रॉय की तीसरी फ़िल्म थी। इस फ़िल्म के साथ उन्होंने अपनी फ़िल्म कंपनी ‘बिमल रॉय प्रॉडक्शन’ की शुरूआत की थी। इस फिल्म का रूस, चीन, फ्रांस, स्विटजरलैंड जैसे कई देशों में प्रदर्शन हुआ। फ़िल्म को कान्स और कार्लोवी वारी के अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म उत्सवों में सम्मानित किया गया था।

बिमल रॉय ने बतौर कैमरामैन फिल्म इंडस्ट्री में दाखिल हुए थे

जहां तक बिमल रॉय के फिल्मी करियर की बात है तो उन्होंने सिनेमा के सफर की शुरूआत कलकत्ता के न्यू थियेटर स्टूडियो से बतौर कैमरामैन की थी। चूंकि बिलम रॉय निर्देशक फिल्म बनाना चाहते थे, लिहाजा स्टूडियो के मालिक बी एन सरकार से उन्होंने इसके लिए इजाजत मांगी। बीएन सरकार तैयार तो हो गए लेकिन एक शर्त रख दी कि बिमल रॉय दूसरी फिल्मों के बचे हुए रील ही इस्तेमाल करेंगे।

बिमल दा ने इसे चुनौती की तरह स्वीकार किया और बची हुई रीलों पर साल 1944 में बांग्ला फिल्म ‘उदार पाथे’ बनाई जो दर्शकों को बेहद पसंद की गई। बिमल दा को बिमल रॉय प्रोडक्शंस बनाने का ख्याल अकीरा कुरोसावा की फिल्म ‘Rashomon’ देखने के बाद आया था। बॉम्बे के इरोज सिनेमा में ऋषिकेश मुखर्जी समेत कुछ लोगों के साथ फिल्म देख कर बिमल रॉय बस से वापस मलाड लौट रहे थे तो ऋषिकेश दा ने उनसे पूछा कि क्या वो ऐसी शानदार फिल्म बन सकते हैं, बिमल रॉय ने हामी भरी और फिर चलते-चलते बस में ही बिमल रॉय प्रोडक्शंस की नीव पड़ी।

और इसी बिमल रॉय प्रोडक्शंस के साथ फिल्म बनी “दो बीघा ज़मीन”, जिसने हिंदी सिनेमा में बिमल रॉय को सशक्त पहचान दिलाई। 11 फिल्मफेयर पुरस्कार, दो राष्ट्रीय पुरस्कार और कान्स फिल्म फेस्टिवल में अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाले बिमल रॉय का करीब चार दशकों तक फिल्मी संसार में कोई बराबरी नहीं कर पाया।

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