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नेपाल के संवैधानिक संकट का नहीं दिख रहा हल, शोभना जैन का ब्लॉग

By शोभना जैन | Published: March 19, 2021 2:46 PM

प्रधानमंत्री खड्ग प्रसाद शर्मा ओली ने ‘असामान्य रूप से’ राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी को संसद यानी प्रतिनिधि सभा (निचले सदन) को भंग कर देश में 30 अप्रैल और 10 मई को  चुनाव कराने  की सिफारिश कर दी.

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ठळक मुद्देदेश में 30 अप्रैल व 10 मई को चुनाव कराने  का आदेश दे दिया.नेपाल की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मिल रही एक नई चुनौती की, देश के समक्ष उत्पन्न एक नए संवैधानिक संकट की.दिसंबर से शुरू हुआ संवैधानिक गतिरोध बना हुआ है.

पड़ोसी देश नेपाल एक बार फिर राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में है. नेपाल में सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी में पिछले काफी समय से अंदर ही अंदर चल रहे सत्ता संघर्ष की खदबहाट ने आखिर 20 दिसंबर को उबाल का रूप ले ही लिया.

उस दिन प्रधानमंत्री खड्ग प्रसाद शर्मा ओली ने ‘असामान्य रूप से’ राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी को संसद यानी प्रतिनिधि सभा (निचले सदन) को भंग कर देश में 30 अप्रैल और 10 मई को  चुनाव कराने  की सिफारिश कर दी. राष्ट्रपति भंडारी ने प्रधानमंत्नी ओली की सिफारिश पर गत दिसंबर में प्रतिनिधि सभा/ संसद  को भंग किए जाने और देश में 30 अप्रैल व 10 मई को चुनाव कराने  का आदेश दे दिया.

यह शुरुआत थी नेपाल की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मिल रही एक नई चुनौती की, देश के समक्ष उत्पन्न एक नए संवैधानिक संकट की. निरंतर गहराते राजनीतिक बवंडर में फिलहाल स्थिति यही है कि संकट से सम्बद्ध सभी पक्ष अपने-अपने रुख पर अड़े हुए हैं और दिसंबर से शुरू हुआ संवैधानिक गतिरोध बना हुआ है.

तनातनी के आलम में गतिरोध दूर करने की दिशा में  हालांकि एक क्षीण संभावना तब बन रही थी जब उच्चतम न्यायलय ने राष्ट्रपति भंडारी द्वारा प्रधानमंत्नी  ओली  की सिफारिश पर  20 दिसंबर के प्रतिनिधि सभा/ संसद को भंग किए जाने के फैसले और देश में नए  चुनाव कराने के आदेश को असंवैधानिक करार देते हुए खारिज कर दिया था.

लगा था कि संसद  को बहाल किए जाने के फैसले से  संभवत: गतिरोध खत्म हो सकेगा लेकिन स्थिति जस की तस बनी हुई है. उच्चतम न्यायालय के  फैसले के अनुरूप संसद की बैठक तो बुलाई गई लेकिन न सरकार और न ही विपक्ष की तरफ से कोई कामकाज हो  रहा है.

बहरहाल, संकट का हल निकालने के लिए बैठकों के दौर तो जारी हैं, लेकिन सत्तारूढ़ दल के अंसतुष्ट गुटों/दलों का कहना है कि राष्ट्रपति भंडारी प्रधानमंत्नी के कहे पर ही मोहर लगाने का काम कर रही हैं. इन्हीं आरोपों के बीच राष्ट्रपति भंडारी ने इसी सप्ताह गत 17 मार्च को सर्वदलीय बैठक बुलाई लेकिन तीन पूर्व प्रधानमंत्रियों ने इस बैठक का बहिष्कार किया.

पूर्व पीएम बाबूराम भट्टाराई, माधव कुमार नेपाल और झलनाथ खनाल में से जहां खनाल और नेपाल सत्ताधारी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (यूएमएल) के बागी धड़े से आते हैं, वहीं भट्टाराई जनता समाजवादी पार्टी का नेतृत्व करते हैं. बैठकों के इसी क्रम में प्रधानमंत्नी ओली ने भी 18 मार्च को संसदीय दल की बैठक बुलाई लेकिन हश्र वही रहा. तनातनी बढ़ रही है और गतिरोध जारी है.

असमंजस की इस स्थिति में सवाल है कि आखिर ये  संवैधानिक संकट किस दिशा की ओर बढ़ रहा है, क्या समाधान बतौर नेतृत्व परिवर्तन हो सकता है या फिर देश में अंतत: नए चुनाव होंगे या कोई और फार्मूला निकलेगा? गौरतलब है कि गत दिसंबर में  नेपाल की 275 सदस्यीय प्रतिनिधि सभा को भंग करने के ओली के कदम के बाद सत्तारूढ़ एनसीपी में विभाजन हो गया था.

23 फरवरी को  हालांकि शीर्ष अदालत ने संसद के निचले सदन को बहाल कर दिया था, लेकिन इस पूरे घटनाक्र म में एक अहम पड़ाव तब आया जब अपना फैसला देने के चंद हफ्तों बाद उच्चतम न्यायालय ने कम्युनिस्ट पार्टी के विलय यानी सीपीएन-यूएमएल और सीपीएन-माओइस्ट सेंटर के विलय को निरस्त कर दिया.

ऐसे में ओली जो कि बहुमत सरकार के नेता थे, उनकी सदन में सदस्य संख्या कम हो गई और वे बहुमत  वाली सरकार से गठबंधन सरकार के नेता हो गए. उन पर बहुमत साबित करने का दबाव पड़ने लगा. गौरतलब है कि 2017 के आम चुनाव में नेकपा-एमाले और नेकपा-माओवादी केंद्र के गठबंधन की जीत के बाद दोनों ही दलों ने मई, 2018 में नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में आपस में विलय कर लिया था.

लेकिन दिसंबर में प्रतिनिधि सभा को भंग करने के ओली के कदम के बाद सत्तारूढ़ एनसीपी में विभाजन हो गया था. अहम बात यह है कि नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म ओली के सीपीएन-यूएमएल और दहल की पार्टी सीपीएल (माओवादी) के विलय से हुआ था. चूंकि दोनों पार्टियों की विचारधारा अलग थी, इसलिए शुरुआत से ही यह आशंका थी कि यह एका अधिक दिनों तक कायम नहीं रह सकेगा और अब दो साल के भीतर ही एक बार फिर कम्युनिस्ट पार्टी का दो टुकड़ों में बंटना लगभग तय हो गया है.

नेपाल भारत का पड़ोसी देश है. शांतिपूर्ण, मजबूत लोकतंत्न वाला पड़ोसी नेपाल उसके भी हित में है. ऐसे में उसके घटनाक्र म पर  भारत की नजर स्वाभाविक है. लेकिन साथ ही प्रतिनिधि सभा को भंग किए जाने के बाद भारत ने सधी हुई प्रतिक्रि या में कहा, ‘यह नेपाल का आंतरिक मामला है तथा अपनी लोकतांत्रिक प्रक्रि या के अनुरूप इसे फैसला करना है. एक पड़ोसी और शुभचंतक के नाते भारत नेपाल और उसकी जनता को शांति, समृद्धि तथा विकास के रास्ते में आगे बढ़ने में समर्थन देता रहेगा.’

वैसे ओली के अब तक के कार्यकाल को देखें तो ओली चीन के  प्रभाव में काम करते रहे और उनके कार्यकाल में भारत विरोधी भावनाएं खासा भड़कीं. इसके लिए उन्होंने भारतीय इलाकों को नेपाल के नक्शे में शामिल करते हुए संविधान संशोधन भी किया. ओली भारत विरोधी बयानबाजी के लिए लगातार चर्चा में बने रहे.

पिछले दो दशकों में नेपाल का लोकतंत्न अनेक उतार-चढ़ावों का साक्षी रहा है. यह संवैधानिक संकट भी उसकी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए एक नई चुनौती है. जब तक सरकार और उसके सहयोगी दलों के बीच मतभेद बने रहते हैं, संकट का समाधान नजर नहीं आता है.

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