गुरुदेव रबिंद्रनाथ टैगोर ने अपनी कहानी काबुलीवाला में जिस काबुलीवाले का जिक्र किया है, दरअसल वही लोग थे जो अफगानिस्तान से तरह-तरह की चीजें बेचने भारत आते थे. वैसे भी सुदूर इतिहास में और मध्यकाल में भी कई बार अफगानिस्तान, भारत का हिस्सा रहा था.
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धरती माता के गर्भ में कहां-कहां तेल और गैस के कितने भंडार हैं, सोने-चांदी के कितने भंडार हैं, हीरे-रत्नों के कितने भंडार हैं, तांबे-लोहे के कितने भंडार हैं आदि को चिह्न्ति किया जा चुका है. दुर्भाग्यवश कुछ देश अभी तक इस सूचना से वंचित हैं.
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जबर्दस्ती पानी के दोहन से फोर्ट परिसर के तमाम सरकारी कार्यालयों में पानी सप्लाई करनेवाले कुएं भी पूरी तरह से सूखकर हांफने लगे हैं. जब कुएं ही सूख जाएंगे तो भला वह दूसरों की कैसे प्यास बुझाएंगे.
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सवाल यह उठता है कि प्रधानमंत्री की इस यात्र का इंतजार मालदीव कर रहा था या भारत स्वयं? क्या प्रधानमंत्री की मालदीव यात्र क्षतिपूर्ति के उद्देश्य से की गई थी या फिर संबंधों की नई बुनियाद रखने के उद्देश्य से?
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जिस मुल्क में सत्तर फीसदी आबादी रात होते ही अंधेरे में डूब जाती हो, वहां आम जनता किस तरह बसर कर रही होगी, कल्पना की जा सकती है. देखना है नियति का कौन सा चमत्कार पाकिस्तान को उबार सकता है.
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हमारी निहायत व्यक्ति केंद्रित होती जा रही संस्कृति सिर्फ अहं भाव को संतुष्ट और प्रदीप्त कर रही है. वह हमारे आध्यात्मिक स्वभाव यानी आत्मा को दबाती जा रही है.
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पहले मालदीव जाकर प्रधानमंत्नी ने यह संदेश दिया कि इस बार उन्होंने अपनी शपथ-विधि में दक्षेस (सार्क) की बजाय ‘बिम्सटेक’ के देशों को बुलाया तो इसका अर्थ यह नहीं कि भारत दक्षेस देशों की उपेक्षा कर रहा है.
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