जन्मदिन विशेष: जब लालू यादव ने हींगवाले का झोला कुएँ में फेंक दिया...
By सुशांत झा | Published: June 11, 2019 06:19 PM2019-06-11T18:19:49+5:302019-06-11T19:51:30+5:30
गुरुदेव रबिंद्रनाथ टैगोर ने अपनी कहानी काबुलीवाला में जिस काबुलीवाले का जिक्र किया है, दरअसल वही लोग थे जो अफगानिस्तान से तरह-तरह की चीजें बेचने भारत आते थे. वैसे भी सुदूर इतिहास में और मध्यकाल में भी कई बार अफगानिस्तान, भारत का हिस्सा रहा था.
आज राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद का जन्मदिन है तो गूगल पर उनकी जीवनी के कुछ अंश मिल गए. उनकी जीवनी में हींगवाले का जिक्र आया तो एक कहानी याद आ गई जो पापा ने सुनाई थी. लालू प्रसाद और हींगवाले की कहानी यह है कि बचपन में एक हींगवाले का हींग का झोला उन्होंने कुएँ में फेंक दिया था, जिस पर उस हींग वाले ने काफी हंगामा मचाया. उसके बाद लालू की मां ने उनकी शरारतों से तंग आकर उन्हें उनके भाई के पास पटना भेज दिया. उसके बाद की कहानी सभी को मालूम है.
आखिर ये हींग वाले कौन होते थे? कहां से आते थे? वे क्या-क्या बेचते थे?
गुरुदेव रबिंद्रनाथ टैगोर ने अपनी कहानी काबुलीवाला में जिस काबुलीवाले का जिक्र किया है, दरअसल वही लोग थे जो अफगानिस्तान से तरह-तरह की चीजें बेचने भारत आते थे. वैसे भी सुदूर इतिहास में और मध्यकाल में भी कई बार अफगानिस्तान, भारत का हिस्सा रहा था. उसके बाद जब वहां स्वतंत्र शासन की स्थापना भी हुई तो उनके लिए भारत का मतलब ज्यादा दूर नहीं था. वर्तमान में जो पाकिस्तान है, वहीं से उनके लिए अविभाजित भारत की शुरुआत हो जाती थी.
ये काबुलीवाले पूरे उत्तर भारत में पसर जाते थे. दक्षिण भारत के बारे में ऐसा पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता लेकिन बंगाल तक ऐसा था जैसा कि टैगोर की कहानी बयां भी करती है.
ये लोग ज्यादातर अपना माल उधार बेचते थे और ब्याज पर पैसा भी लगाते थे. मान लीजिए सौनी पूर्णिमा (सावन की पूर्णिमा) में माल देते तो टक सवाई यानी एक का सवा रुपया लेकर अगहनी पूर्णिमा के आसपास वसूलते. फिर ये लोग अपने देश को वापस लौट आते. वे लोगों का नाम-पता अपने बही-खाते में दर्ज कर लेते और चार-पांच महीने बाद फिर से जब वापस आते तो लोग उन्हें उनका पैसा चुका देते. लोगों में नैतिकता बची हुई थी. वे अपने वचन का पालन करते थे. यहीं वजह थी कि डेढ़-दो हजार किलोमीटर दूर से आए इन पठानों को इन दूरदराज के इलाकों में अपना माल बेचने में कभी दिक्कत नहीं हुई.
वे किसी मुख्य गांव में अपना डेरा डालते थे- आमतौर पर ऐसा गांव जो कई गांवों का केंद्र होता था या जहां थोड़ी बहुत सड़क की पहुंच थी या कोई चौक होता.
अफगान से आए 'मोगल'
मेरे इलाके में लोग उन्हें ‘मोगल’ कहते थे. यह मुगल का अपभ्रंश था. मोगल लोग दो काम करते थे. वे हींग बेचते थे और सूद पर पैसा लगाते थे. हालांकि इस्लाम में सूद को पाप माना गया है लेकिन वे ऐसा करते थे. ऐसा लगता है कि उन इलाकों से आए लोगों में सूद पर पैसा लगाने का प्रचलन था. आजादी के बाद जब लाखों सरदार और हिंदू, भारत में शरणार्थी बनकर आए तो कुछ लोग सूद पर पैसा लगाने लगे. ऐसे कुछ सरदार दरभंगा के इलाके में भी थे.
मेरे गांव में एक ऐसा ही मोगल आता था जो हींग बेचता था और ब्याज पर पैसा लगाता था. किसी गरीब ने उससे हींग और कर्ज लिया था लेकिन वो चुका नहीं पाया. वो पठान गुस्से से लाल-पीला हो गया और उसे खोजने लगा. लेकिन वो कर्जदार कहीं छुप गया. अब पठान गंदी-गंदी गालियां देने लगा. गांव वाले सुनते रहे क्योंकि उन्हें लग रहा था कि पठान की बात सही है. आखिरकार जब पठान सीमा लांघने लगा तो मेरे गांव के एक संभ्रांत लंबोदर बाबू ने उसे रोका और उस गरीब का पैसा पठान को लौटा दिया. रबिंद्रनाथ टैगोर की कहानी का काबुलीवाला भी पैसा न चुकाने पर एक देनदार को छुरा मार देता है.
आज उस कहानी को करीब अस्सी साल हो गए हैं. ये आजादी से दस-बारह साल पहले की बात है. मैं सोचता हूं कि अपने मूल-प्रदेश या देश से हजार-दो हजार किलोमीटर दूर जाकर व्यापार करने और इतनी दबंगई से रहने का साहस कैसे किसी को होता होगा? शायद, समाज में नैतिकता की भावना बहुत थी और लोग सत्य के पक्ष में सिर झुका लेते थे. एक कारण यह भी हो सकता है कि मुसलमान चूंकि शताब्दियों से इस देश में शासक थे, तो लोग मनौवैज्ञानिक रूप से उनसे दबे हुए थे.
लालू यादव का बचपन और पठान
लालू प्रसाद की जीवनी में जिस हींग वाले का जिक्र है, संभव है वह भी पठान रहा हो क्योंकि वह कालखंड 1955-60 तक का है और उस समय तक भारत का बंटवारा भले ही हो गया हो लेकिन हिंदुस्तान के भीतर जगह-जगह पठान रहते थे जो हाल ही में अफगानिस्तान से आए हुए थे. बहुत सारे तो खान अब्दुल गफ्फार खान (सीमांत गांधी) के समर्थक थे. वे आजादी के बाद भी हींग बेचते थे. पापा बताते हैं कि सन् 60 और 70 के दशक तक ये मोगल मेरे गांव आते थे. उन्होंने अफगानिस्तान से सामान मंगवाने का कोई इंतजाम कर रखा था. सन् बासठ की लड़ाई के वक्त पापा कलकत्ता में थे तो वहां छह-सात हजार पठानों की एक सभा हुई थी जिन्होंने लड़ाई के दौरान भारत सरकार के पक्ष में बयान दिया था- चूंकि उनके नेता खान अब्दुल गफ्फार खान ने ऐसा कहा था.
कहते हैं कि राजस्थान में राजपूत रजवाड़ों-ठिकानेदारों और जमींदारों में अफीम का जो प्रचलन था उसके मुख्य आपूर्तिकर्ता ये पठान ही थे. वे अफगानिस्तान से अफीम लाते थे और उन रजवाड़ों में बेचते थे. यूं भी राजस्थान और अफगानिस्तान की बहुत दूरी नहीं है. संभवत: अंग्रेजों ने भी गुप्त रूप से इस व्यापार को बढ़ावा दिया था. अंग्रेज, भारत से अफीम ले जाकर चीन में बेचते थे. वहां स्थिति इतनी भयावह हो गई कि चीन में अफीम युद्ध तक हुए. चीनी जनमानस में उन अफीम युग की अभी भी इतनी कड़वी यादें हैं कि उन्हें पूरा पश्चिम ही धूर्त लगता है.
भारत में इन काबुलीवालों या पठानों को उनके रूप-रंग, शारीरिक सौष्ठव, साहस, बहादुरी, सादगी और ईमानदारी के लिए सम्मान के तौर पर देखा जाता था. कई फिल्मों में भी इसका चित्रण हुआ. अफगानिस्तान में सोवियत और अमेरिकी हस्तक्षेप के बाद सब कुछ खत्म हो गया और आज उनका सबसे बड़ा परिचय पत्र तालिबान बन गया है.
खैर, मैंने अपने एक दोस्त को लालू प्रसाद के हींग का झोला फेंकने वाली कहानी सुनाई तो उसने कहा कि जरूर लालू प्रसाद ने उसके रूप-रंग और शारीरिक सौष्ठव से चिढ़ कर उसे सामंत समझ लिया होगा और समाजिक न्याय का कर्तव्य समझकर उसका झोला कुएं में फेंक दिया!