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अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: देश की अर्थव्यवस्था के सामने गरीबी से निपटने की चुनौती

By अभय कुमार दुबे | Updated: April 6, 2022 12:58 IST

भारतीय बाजार लंबे समय से मांग की कमी का शिकार है. मांग जब तक दबी रहेगी, नया निवेश नहीं होगा. ऐसे में देश में आर्थिक प्रक्रिया में उछाल नहीं आएगा.

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सरकारों की तरफ से जो दावे किए जा रहे हैं अगर उन पर ध्यान दिया जाए तो मुफ्त अनाज बांटने की योजनाओं का लाभ अस्सी करोड़ लोगों को मिलने वाला है. इस समय देश की आबादी एक अरब चालीस करोड़ है. यानी सरकार ने इसके जरिये स्वीकार कर लिया है कि इस समय देश की आबादी का 57 फीसदी गरीब है. इस गरीबी की मार इतनी ज्यादा है कि ये अस्सी करोड़ लोग अपने लिए खाद्य सुरक्षा की गारंटी अपने उत्पादक प्रयासों के माध्यम से नहीं कर सकते. उनके पास खाने-कमाने का जरिया नहीं है. इसलिए सरकार मुनासिब समझती है कि उन्हें मुफ्त अनाज, दाल, रिफाइन तेल और नमक दिया जाए. 

सरकार गरीबों की मदद करना चाहती है तो इसमें किसी को क्यों ऐतराज होना चाहिए. लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को ज्यादा से ज्यादा राहत दे. लेकिन यह बात यहीं खत्म नहीं होती. इससे एक परिप्रेक्ष्य बनता है कि भारत आज भी गरीबों का देश है. ऐसे गरीबों का जिन्हें यहां की अर्थव्यवस्था साधारण पेट भरने लायक रोजगार देने में असमर्थ है. इसलिए उन्हें मुफ्त राशन की सब्सिडी दी जा रही है. 

हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं. इसे सरकार ‘अमृत काल’ का नाम दे रही है. लेकिन इस ‘अमृत काल’ पर दरिद्रता का साया दिखाई दे रहा है.

इस परिप्रेक्ष्य के कुछ और भी विरोधाभास हैं जो उत्तर प्रदेश सरकार के ही एक कदम से स्पष्ट हुए हैं. आदित्यनाथ सरकार ने दोबारा शपथ लेते ही अखबारों में विज्ञापन देकर एक ऐसे जबरदस्त कंसल्टेंट (महासलाहकार) की तलाश शुरू कर दी है जो उसके लिए प्रदेश की अर्थव्यवस्था को एक खरब डॉलर तक ले जाने की कार्ययोजना बना सकता हो. यह महासलाहकार कोई व्यक्ति भी हो सकता है, और कोई संस्था भी. यह राष्ट्रीय भी हो सकता है और अंतर्राष्ट्रीय भी. 

जाहिर है कि ऐसे महासलाहकार को रखने के लिए सरकार बड़े पैमाने पर धन खर्च करेगी. विज्ञापन राज्य सरकार के नियोजन विभाग ने जारी किया है. जाहिर है कि अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने का काम नियोजन विभाग और वित्त मंत्रलय का होता है. इस काम की ‘आउटसोर्सिग’ का मतलब यह हुआ कि सरकारी अफसर और नियोजक चुनी हुई सरकार का विश्वास खो चुके हैं. अपने पिछले कार्यकाल में भी आदित्यनाथ सरकार ने ऐसे महासलाहकार की तलाश की थी. उस समय आठ फर्मो ने इसके लिए टेंडर भरे थे. 

इनमें बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप, डेलोइट, ग्रांट थॉर्टन और आईआईएम-लखनऊ भी शामिल थे. लेकिन बात बनी नहीं. इसलिए दोबारा फिर उस काम को शुरू किया गया है. विरोधाभास यह है कि उत्तरप्रदेश की कुल आबादी 24.34 करोड़ है. इसमें से पंद्रह करोड़ को आदित्यनाथ सरकार मुक्त राशन पाने के काबिल मानती है. यानी प्रदेश की तकरीबन साठ फीसदी आबादी उत्पादक श्रम की सुविधाओं और स्थितियों से वंचित है. उसे पेट भरने के लिए मुफ्त अनाज चाहिए. क्या ऐसा प्रदेश एक खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बना सकता है, और अगर बना सकता है तो उसमें उसे कितना समय लगेगा. पिछले पांच साल तो उस महासलाहकार की खोज में ही गुजर गए जिससे इस तरह की सलाह और योजना की अपेक्षा की जा रही है. सरकारी मशीनरी के बारे में तो मान ही लिया गया है कि वह यह काम नहीं कर सकती.  

यही परिप्रेक्ष्य केंद्र सरकार पर भी फिट बैठता है. केंद्र पांच खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाना चाहता है. इस तरह की बातें अक्सर होती रहती हैं. लेकिन यह ठोस रूप से कभी नहीं बताया जाता कि यह महा-लक्ष्य कैसे वेधा जाएगा, जब 57 फीसदी लोग राष्ट्रीय स्तर पर गरीब मान लिए गए हैं, और उन्हें खाद्य सुरक्षा के नाम पर मुफ्त अनाज घोषणापूर्वक दिया जा रहा है. समझा जाता है कि यह योजना हर तरह से जारी रखी जाएगी, ताकि 2024 के लोकसभा चुनाव तक गरीब जनता की हमदर्दी जीतना जारी रखा जा सके. 

केंद्र सरकार ने अरविंद पनगढ़िया के नेतृत्व में एक टास्क फोर्स बनाई थी. इसने सिफारिश की थी कि आबादी के निचले तबके (आर्थिक रूप से कमजोर चालीस फीसदी लोग) की आर्थिक प्रगति पर निगाह रखी जानी चाहिए. जाहिर है कि अब इन गरीब लोगों की संख्या और बढ़कर पचपन से साठ फीसदी तक पहुंच चुकी है.

असलियत यह है कि बाजारवाद के शिकंजे के कारण भारत की सरकारों ने जनता की आमदनी बढ़ाने की नीतिगत स्वायत्तता धीरे-धीरे खो दी है. वे न रोजगार दे सकती हैं, न ही किसी तबके की खुशहाली बढ़ाने की किसी योजना पर अमल कर सकती हैं. इन कामों के लिए वे पूंजी और कॉर्पोरेट  पहलकदमी पर निर्भर हैं. पूंजी तब सक्रिय होती है जब उसके विस्तार या मुनाफे की  परिस्थितियां होती हैं. 

भारतीय बाजार लंबे अरसे से मांग की कमी का शिकार है. जब तक मांग दबी रहेगी, नया निवेश नहीं होगा. आर्थिक प्रक्रिया में उछाल नहीं आएगा. अर्थव्यवस्था वैकासिक होने के बजाय सब्सिडी पर आधारित बनी रहेगी.

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