Nagpur Violence: सोमवार की शाम से लेकर देर रात तक नागपुर में अफवाह की जो आंधी फैली और मुट्ठी भर उपद्रवियों ने शहर की जो फिजा खराब की वह न केवल निंदनीय है बल्कि संगीन अपराध की श्रेणी में आता है. इसे केवल आगजनी, हिंसा और तोड़फोड़ की श्रेणी में ही नहीं रखा जा सकता बल्कि यह समाज के बीच स्थापित विश्वास को खंडित करने की भी खौफनाक कोशिश है. थोड़े से लोग एक जुलूस निकालते हैं, थोड़े से लोग कुछ अफवाह फैलाते हैं और वही थोड़े से लोग बिना यह जाने समझे कि वास्तव में मामला क्या है, तोड़फोड़ पर उतर आते हैं.
सड़क किनारे खड़े वाहनों को आग लगा देते हैं. उपद्रव रोकने के लिए पुलिस आती है तो उसे भी अपना निशाना बनाते हैं. दर्जनों पुलिसकर्मी घायल होते हैं. यहां तक कि पुलिस कमिश्नर रविंद्र कुमार सिंगल भी घायल हो जाते हैं. लेकिन नागपुर पुलिस की तारीफ करनी होगी कि दंगाइयों के पत्थर खाने के बावजूद पुलिस ने अत्यंत संयम से काम लिया.
दोनों पक्षों के उपद्रवियों की नकेल कसने में कामयाबी हासिल की. हालांकि तनाव अभी भी बना हुआ है लेकिन स्थिति शांतिपूर्ण है. सवाल यह उठता है कि इस तरह के उपद्रव को चिंगारी कौन देता है और वह चिंगारी धधकती आग में कैसे तब्दील हो जाती है? इस तरह की हरकत करने वाले चाहते क्या हैं?
इसमें कोई संदेह नहीं कि मानव सभ्यता के विकास में धर्म, मजहब या पंथ, जो भी कहें, ने निश्चित रूप से अलग भूमिका निभाई है लेकिन यही धार्मिक मान्यता जब कट्टरता का चोला ओढ़ लेती है तो थोड़े से लोगों की विकृत सोच के कारण हिंसा का कारण भी बन जाती है. नागपुर में भी यही हुआ है. पारंपरिक और सांस्कृतिक रूप से नागपुर सर्वधर्म समभाव वाला शहर रहा है.
छुटपुट घटनाओं को छोड़ दें तो यह शहर अमूमन शांत रहता है. ऐसे शहर में यदि एक अफवाह उठे और वह उपद्रव का कारण बन जाए तो यह निश्चित रूप से गंभीर चिंता का विषय है. इससे समाज टूटता है और कट्टरपंथियों को ताकत मिलती है. यह हर जगह होता है इसलिए समाज के हर तबके को सतर्क रहने की जरूरत है.
कुछ लोग भारत के समृद्ध समाज को तोड़ने की कोशिश में हमेशा लगे रहते हैं. ऐसे लोगों से सख्ती से निपटने के साथ ही सामुदायिक रूप से भी सतर्कता यदि नहीं बरती गई तो वक्त ज्यादा क्रूर साबित होगा. और जो लोग इस तरह के उपद्रव को हवा देते हैं, क्या उन्हें यह समझ में नहीं आता कि हिंसा की आग में सभी पक्ष जलते हैं.
सबसे ज्यादा सामान्य आदमी या यूं कहें कि गरीब और निम्न मध्यमवर्गीय परिवार इस हिंसा के शिकार होते हैं. जरा सोचिए कि जिन थाना क्षेत्रों में कर्फ्यू लगता है, वहां के मजदूर काम पर नहीं जा पाएंगे तो खाएंगे क्या? मजदूर तो हर रोज कमाता और खाता है! क्या बेशर्म दंगाई उनका पेट भरेंगे? और सबसे बड़ी बात कि जिस जगह धार्मिक उपद्रव होता है वहां विश्वास की डोर टूट जाती है.
उसे फिर से जोड़ना बड़ा मुश्किल काम होता है. समाज में विश्वास की डोर जब टूटती है तो राज्य और राष्ट्र के स्तर पर उसका व्यापक दुष्परिणाम होता है. दुर्भाग्य से देश के विभिन्न हिस्सों से इस तरह की खबरें लगातार आती रहती हैं. ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए हमें मजबूत तंत्र विकसित करना होगा और इसमें कानूनी एजेंसियों के साथ ही हर समाज के शांतिप्रिय लोगों को अपनी सार्थक भूमिका निभानी होगी, तभी उपद्रवियों पर हम काबू पा सकते हैं और सामाजिक सद्भाव कायम रख सकते हैं.