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ब्लॉग: बुनियादी सुविधाओं से अभी भी वंचित हैं दुनिया के करोड़ों लोग

By योगेश कुमार गोयल | Updated: December 10, 2021 15:16 IST

सर्वप्रथम 27 जनवरी 1947 को एक आयोग गठित किया था, जिसकी सिफारिशों के सार्वभौमिक घोषणा पत्न को संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्यों ने 10 दिसंबर 1948 को सर्वसम्मति से स्वीकार किया था। तभी से विश्वभर में 10 दिसंबर का दिन ‘विश्व मानवाधिकार दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है।

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मनुष्य के जीवनयापन और विकसित होने के मूलभूत (सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक) अधिकारों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘मानवाधिकार’ के रूप में स्वीकार किया गया है। मानवाधिकारों की विस्तृत व्याख्या के लिए संयुक्त राष्ट्र ने सर्वप्रथम 27 जनवरी 1947 को एक आयोग गठित किया था, जिसकी सिफारिशों के सार्वभौमिक घोषणा पत्न को संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्यों ने 10 दिसंबर 1948 को सर्वसम्मति से स्वीकार किया था। तभी से विश्वभर में 10 दिसंबर का दिन ‘विश्व मानवाधिकार दिवस’ के रूप में मनाया जा रहा है।

दरअसल 1945 में संयुक्त राष्ट्र की स्थापना ही इस उद्देश्य से की गई थी कि भविष्य में द्वितीय विश्वयुद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न न होने पाए और संयुक्त राष्ट्र ने अपनी स्थापना के कुछ ही समय बाद मानवाधिकारों का संरक्षण किए जाने की ओर ध्यान देना शुरू किया। विडंबना है कि मानवाधिकारों की घोषणा के 73 वर्ष बाद भी दुनियाभर में करोड़ों लोग संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित मानवाधिकारों से वंचित हैं। 

करोड़ों लोग रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरतों से महरूम हैं। एक अरब से भी अधिक लोग कम या ज्यादा कुपोषण के शिकार हैं। कुपोषण की वजह से हर रोज हजारों बच्चे काल के ग्रास बन रहे हैं। दुनियाभर में करोड़ों बच्चे बाल मजदूरी का दंश झेल रहे हैं। भारत में आठ करोड़ से भी अधिक बच्चे अपने मासूम बचपन को बाल मजदूरी की तपती भट्ठी में झोंकने को विवश हैं, जो स्कूली शिक्षा से भी वंचित हैं।

औद्योगीकरण की अंधी दौड़ में देश में मजदूर महिलाओं व मासूम बच्चों का शारीरिक व मानसिक शोषण किसी से छिपा नहीं है। विश्वभर में अरबों लोग आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं से वंचित हैं. एक अरब से अधिक लोगों को पीने के लिए स्वच्छ एवं शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है। 

यदि हम मानवाधिकारों की दृष्टि से इसका विवेचन करें तो क्या ये सभी उचित स्तर पर जीवनयापन के अधिकार, शिक्षा के अधिकार, जीवन के प्रति सुरक्षा के अधिकार, शोषण से मुक्ति के अधिकार तथा अन्य सामाजिक अधिकारों से पूर्णतया वंचित नहीं हैं? क्या यह सरासर मानवाधिकारों के उल्लंघन का मामला नहीं है? क्या यह मानवाधिकार आयोग का दायित्व नहीं है कि वह इन विसंगतियों को दूर करने के लिए सार्थक एवं प्रभावी कदम उठाए? 

आधुनिक भारत में करोड़ों लोग आज भी भूखे-नंगे अपनी जिंदगी के दिन जैसे-तैसे उद्देश्यहीन पूरे कर रहे हैं. क्या ऐसे लोगों के लिए मानवाधिकारों का कोई महत्व हो सकता है? मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग के अलावा लगभग प्रत्येक राष्ट्र में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सक्रिय हैं लेकिन आज भी जिस गति से मानवाधिकारों का हनन हो रहा है, उससे मानवाधिकार आयोगों के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न् लगता है।

दुनियाभर में दो प्रमुख मानवाधिकार संगठनों ‘एमनेस्टी इंटरनेशनल’ व ‘ह्यूमन राइट वॉच’ का खासतौर से उल्लेख किया जा सकता है, जो दुनियाभर की स्थिति पर नजर रखते हैं और हर साल इस पर अपनी रिपोर्ट पेश करते हैं। मानवाधिकार हनन के मामले में हर देश की क्रमानुसार स्थिति दर्शाई जाती है और इस रिपोर्ट के आधार पर जिस देश में मानवाधिकार की स्थिति दयनीय होती है, उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर न केवल आलोचना का शिकार होना पड़ता है बल्कि अमेरिका जैसे विकसित देश उस पर आर्थिक प्रतिबंध भी लाद देते हैं। 

पर वास्तविकता यह है कि पिछले कुछ समय से इन संगठनों की रिपोर्टो को भी पूरी तरह निष्पक्ष नहीं माना जाता. इन रिपोर्टो के पीछे अमेरिका इत्यादि विकसित देशों के अपने निजी हित या स्वार्थ भी छिपे होते हैं। भारत में सितंबर 1993 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया था, जिसका उद्देश्य मानवाधिकारों का संरक्षण व उनको प्रोत्साहन देना ही था। 

आयोग के गठन के कुछ ही समय बाद आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि देश की सभी जटिलताओं को दृष्टिगत रखते हुए आयोग मानता है कि जो लोग सर्वाधिक दुर्बल हैं, उनके रक्षण का आयोग पर एक विशेष और अपरिहार्य दायित्व है। लेकिन आयोग अपने गठन के बाद के इन 28 वर्षो में अपने दायित्वों को निभाने में कितना सफल रहा है, इसकी पड़ताल किए जाने की आवश्यकता है।

टॅग्स :ह्यूमन राइट्सUN
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