Bangalore Water Crisis: पुराने बेंगलुरु हवाई अड्डे के पास, विभूतिपुरा गांव में सन् 1307 ईस्वी के एक शिलालेख में लिखा गया है कि कैसे एक तालाब बनाया गया था, जब लोगों ने पेरू-यूमूर से सटे जंगल को साफ किया, जमीन को समतल किया, एक गांव बसाया, गांव वालों ने रेत हटाकर एक तालाब का निर्माण किया और गांव का नाम वाचीदेवरापीरम रखा. बेंगलुरु के अभूतपूर्व लेकिन अपेक्षित जल संकट ने मुझे सूचना प्रौद्योगिकी की राजधानी के अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की दो महिला लेखक-शिक्षकों की एक अद्भुत पुस्तक ‘शेड्स ऑफ ब्लू’ की याद दिला दी.
हरिणी नागेंद्र और सीमा मुंदोली ने ‘बेंगलुरु-लैंडलॉक्ड सिटी ऑफ टैंक्स एंड लेक्स’ नामक अध्याय में उपरोक्त ऐतिहासिक जानकारी का उल्लेख किया है. वे कहती हैं कि शहर के पूर्व शासक - केम्पेगौड़ा, शाहजी भोंसले से लेकर टीपू सुल्तान और अंग्रेजों तक - सभी पानी के महत्व और झीलों (टैंकों) व तालाबों को बनाए रखने तथा नए बनाने के महत्व को भलीभांति जानते थे.
कुछ साल पहले चेन्नई में पानी की किल्लत होने पर हमने कोई सबक नहीं सीखा, अब एक और बड़ा शहर भयावह शहरी अनियोजन, पानी के अनियंत्रित दोहन और झीलों के संरक्षण के प्रति लापरवाही का दुष्परिणाम झेल रहा है. कभी संपन्न गांवों का समूह रहे इस क्षेत्र पर शासन करने वाले सदियों पुराने राजवंश इंटरनेट, कम्प्यूटर और अन्य आधुनिक उपकरणों की मदद के बिना भी जो समझ रखते थे.
प्रौद्योगिकी की राजधानी के कर्ता-धर्ता उसे 21वीं सदी में भी नहीं समझ पाए हैं, यह हम सबका दुर्भाग्य है. शायद वे कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) की मदद से पानी खोजने में व्यस्त हों, जो एक नवीनतम सनक है जिसने दुनिया को जकड़ रखा है. कृत्रिम बुद्धिमत्ता की मदद के बिना, 3000 साल से भी अधिक पहले लोगों ने उस विशाल स्थान को चुना था.
जहां बेंगलुरु शहर बहुत बाद में अपनी ‘वहन क्षमता’ से भी अधिक विकसित हुआ. याद रखें, उन्होंने जलस्रोतों का विकास किया था जिन्हें बाद की पीढ़ी के राजनेताओं और नौकरशाहों ने विकास के नाम पर पाट देने में ही गर्व महसूस किया. उन दिनों वर्षा के जल से भरने के लिए अधिक ऊंचाई पर झीलें बनाई जाती थीं; अतिरिक्त पानी निचली झील में बह कर आता था.
इस तरह उन दिनों, जब बिजली नहीं हुआ करती थी, एक प्राकृतिक जलीय संरचना तैयार हो जाती थी. यह पूरे भारत में उस समय एक आम तकनीक थी जब भारी-भरकम डिग्री वाले आधुनिक इंजीनियर और उन्हें नियंत्रित करने वाले शक्तिशाली नौकरशाह मूर्खतापूर्ण प्रयोग करने के लिए परिदृश्य पर नहीं आए थे. जो वे आज कर रहे हैं उस पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है, यह दुःखद है.
राजनेताओं के बारे में तो जितना कम कहा जाए उतना अच्छा. मुझे आश्चर्य नहीं है कि बेंगलुरु आज गंभीर जल संकट का सामना कर रहा है, क्योंकि पिछले 40 वर्षों में मैं झील संरक्षण के क्षेत्र में कार्यरत हूं और मैंने देखा है कि कैसे नौकरशाहों, नगरपालिका प्रमुखों, राजनेताओं और इंजीनियरों ने ‘मिलकर’ शहरी भारत में जल निकायों को बर्बाद कर दिया है.
ऐसे समय में, जबकि कथित ‘अमृतकाल’ में बढ़ती जनसंख्या वास्तव में एक बड़ी चुनौती है, जल निकायों - झीलों, तालाबों, कुओं और नदियों - के ‘प्रबंधन’ के अत्यधिक गलत तरीके भी शहरी जल संकट के लिए जिम्मेदार हैं. भूजल चिंताजनक स्तर तक नीचे चला गया है. मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि केवल कुछ ही अधिकारी या महापौर हैं.
जिन्होंने अपने शासकीय कर्तव्य के रूप में जल निकायों के संरक्षण में विशेष रुचि ली है. किसी भी मुख्यमंत्री या मुख्य सचिव ने कभी भी किसी नगर निगम आयुक्त या जिला कलेक्टर से नहीं पूछा होगा कि उन्होंने जल स्रोतों के संरक्षण के लिए अपने-अपने क्षेत्रों में क्या काम किया है.
किसी नौकरशाह की एक भी वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (एसीआर) किसी विशेष क्षेत्र- गांव या शहर की पानी की जरूरतों को पूरा करने में विफलता के कारण वरिष्ठों द्वारा खराब नहीं की गई है. जवाबदेही की उस सामूहिक कमी का नाम बेंगलुरु है. वहां की दो सबसे बड़ी झीलें-बेलंदूर और वर्थुर अपने चारों ओर भारी निर्माण कार्यों के कारण लगभग खत्म कर दी गई हैं. कौन है इसका जिम्मेदार?
तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की चाहत रखने वाले भारत ने निश्चित रूप से स्मार्ट शहरों और अन्य नीतियों के निर्माण के साथ तेजी से शहरी प्रवासन शुरू करके एक बड़ी गलती की है. शहर बिल्कुल भी स्मार्ट नहीं हुए हैं, जैसा कि बेंगलुरु में देखा जा सकता है, जहां इंसान की बुनियादी जरूरतों तक पर ध्यान नहीं दिया गया है.
महात्मा गांधी गांवों के मुखर समर्थक थे लेकिन उनके अनुयायी शहरों से प्यार करते हैं. गांधीजी ने आवश्यकता (नीड) की बात की थी, उनके अनुयायी लालच (ग्रीड) के पीछे भाग रहे हैं. यदि गांवों को ‘स्मार्ट’ बना दिया जाता तो कुछ हद तक अप्राकृतिक पलायन पर रोक लग जाती.
नीति निर्माताओं ने बेंगलुरु, पुणे, मुंबई, हैदराबाद, इंदौर, लखनऊ या नई दिल्ली जैसे शहरों के नाम पर एक मृगतृष्णा रची है- जहां हर कोई आकर रहना चाहता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि निर्माण कार्यों (मेट्रो, माॅल्स, पुलों) से उन्हें आसानी से पैसा मिल जाता है; किसी झील या नदी को बचाने से नहीं!