कलाकार: सुशांत सिंह राजपूत, मनोज बाजपेई, भूमि पेडनेकर, आशुतोष राणा, रणवीर शौरी निर्देशक: अभिषेक चौबे मूवी टाइप: Drama,Action,Crimeअवधि: 1 घंटा 48 मिनट
हमारी तरफ से फिल्म को ढाई स्टार
Sonchiriya Film Review and Rating: डाकुओं, बागियों, दस्यु सरगनाओं, बीहड़ और चंबल वगैरह-वगैरह पर अब तक कई फिल्में बनी हैं और सोनचिड़िया के रूप में एक और फिल्म सिनेमाघरों में है। इस फिल्म के जरिये बंदूक उठाकर समाज की मुख्यधारा से अलग हुए बागियों के मन की संवेदना को उकेरा गया है। संवेदनाओं की तासीर इतनी गहरी है कि बीहड़ और चंबल के डाकू हाथ में तो बंदूक लिए हैं लेकिन पश्चाताप और मुक्ति की बात करते हैं। उनमें से कुछ सरेंडर कर सामान्य जीवन जीना चाहते हैं।
यह तो पहले से ही साफ है कि फिल्म चंबल और बीहड़ की है तो इसमें आपको खूबसूरत और मन को ठंडक देने वाले घाटियों-वादियों के सीन नहीं दिखाई देंगे लेकिन एक बड़ी है जो आपको सिनेमाघरों तक खींच सकती है वह है इसका कनेक्शन। फिल्म का भावनात्मक सीधा आपसे जुड़ा है। धूल-मिट्टी वाली लोकेशंस और बंदूक की गोलियों की आवाज से भरी फिल्म में से रह-रहकर मानवीय संवेदनाओं को झकझोरने वाली कराह भी सुनाई देती है। कहानी सामाजिक संदेश देती है।
फिल्म का सबसे बड़ा दस्यु सरगना मान सिंह आस्तिक है और धर्म और आस्था का कड़ाई से पालन करता है और अपने एक अमानवीय कृत्य के लिए पश्चाताप करने का मौका ढूंढ़ता है। उसकी गैंग के सदस्यों में शामिल लाखन खूंखार डाकू होते हुए भी जज्बातों से भरा इंसान है। औरतों की इज्जत करना जानता है और किसी और के यहां के पचड़े में पांव डालकर अपनी जान पर खेल जाता है। चंबल के डाकुओं की कहानी के जरिये समाज में व्याप्त बुराइयों ऊंच-नीच, जात-पात, छुआछूत, यौन शोषण और बाल यौन शोषण पर प्रहार किया गया है।
दुष्कर्म का शिकार होकर बंदूक उठाने को मजबूर हुई फूलन देवी के किरदार की एंट्री कहानी को और रोचकता प्रदान करती है। फिल्म में सभी कलाकार अपने-अपने किरदार में फिट बैठते हैं। हालांकि मनोज वाजपेयी का मान सिंह के किरदार में महज स्पेशल अपीयरेंस रोल खलता है क्योंकि शायद फिल्म को उनके लंबे रोल की जरूरत थी। सुशांत सिंह राजपूत लाखन सिंह के किरदार में एकबार फिर अपनी एक्टिंग का लोहा मनवाते हैं। वह एकबार फिर अपनी चॉकलेटी ब्वॉय की इमेज को तहस-नहस कर देते हैं।
भूमि पेडनेकर पहले भी कई दफा साबित कर चुकी हैं कि वह मंझी हुआ शुद्ध कलाकार हैं और इस फिल्म में भी उन्हें जितना रोल मिला उसके साथ उन्होंने न्याय किया। रणवीर शौरी को डाकू के किरदार में सबसे ज्यादा जमते दिखाई देते हैं। उन्होंने एक्टिंग भी धांसू की है। दरोगा वीरेंदर सिंह के किरदार में आशुतोष राणा का कहना ही क्या, वह न बोलें तो उनकी आंखें ही बोल देती हैं। एकबार फिर वह अपनी एक्टिंग का लोहा मनवाते हैं। फिल्म की कहानी के हिसाब से इसकी अवधि थोड़ी लंबी हो गई है लेकिन अगर आपको डाकुओं पर बनी फिल्में लुभाती है तो इसे आप देख लेंगे। फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक बीहड़ और चंबल के हिसाब से मैच करता है। एक चीज खलती है, वह यह कि ट्रेलर फिल्म की भाषा में स्थानीय बोली का पुट दिखाया गया है लेकिन फिल्म में वह नदारद है। उड़ता पंजाब, इश्किया, डेढ़ इश्किया जैसी फिल्में दे चुके डायरेक्टर आशुतोष चौबे और फिल्म मेकर्स की यह सबसे बड़ी गलती भी कही जाएगी।
फिल्म का दरोगा तो कहीं-कहीं स्थानीय बोली में बोलता नजर आता है लेकिन डाकुओं के किरदार में बाकी कलाकारों के संवाद सुनकर ऐसा लगता है कि जैसे महानगरों की कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ी ऑडियंस के लिए फिल्म को डब कर दिया गया है। डबिंग को लेकर सच्चाई क्या है, यह हम नहीं जानते हैं और न ही दावा करते हैं लेकिन जो देखा है वह साफ कर रहे हैं। बीच-बीच में और अंत में फिल्म पारिस्थितिकी तंत्र का संदेश भी देती है और कहा जाता है कि ''सांप खाएगा चूहे को, सांप को खाएगा गिद्ध, यही नियम है दुनिया का, कह गए साधु सिद्ध।''