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अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: राजपथ पर किसानों के उतरने के मायने

By अभय कुमार दुबे | Updated: December 5, 2018 05:19 IST

दरअसल, कांग्रेस और भाजपा सरकारों की किसान-विरोधी नीतियों की कहानी बीस साल से भी पुरानी है। 1983-84 से लेकर 2010-11 के दौरान देश के सकल घरेलू उत्पादन में खेती का योगदान घट कर आधा हो चुका था,

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पहले मुंबई की सड़कों पर और उसके बाद दिल्ली की सड़कों पर आंदोलनकारी किसानों के मार्च का सरकार और नीति-निर्माताओं के पास क्या जवाब है? इस प्रश्न का उत्तर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने दिया है। जब उनसे पूछा गया कि सरकार किसानों की नाराजगी से खतरा महसूस नहीं कर रही, तो उन्होंने बड़े निश्ंिचत भाव से उत्तर दिया कि नहीं भाई कोई सवाल ही नहीं उठता। हमने उनकी फसलों का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य दे दिया है और यूरिया सभी को सस्ती और सुलभ करा दी है। हमने वह कर दिया है जो कांग्रेस कभी नहीं कर पाई थी। 

शाह का मानना था कि नाराजगी की बात तो छोड़ ही दीजिए, किसान तो उनकी सरकार से खुश हैं। क्या भाजपा अध्यक्ष का यह दावा सही है? अगर किसान सरकार से खुश हैं तो फिर वे सड़कों पर किसके खिलाफ नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं? हकीकत यह है कि पिछले बीस साल में पूरे दस साल कांग्रेस का राज रहा और बाकी दस साल भाजपा का (वाजपेयी के छह साल और मोदी के चार साल)। इसलिए अगर वे नाराज हैं तो दोनों ही पार्टयिों से। चूंकि इस समय सरकार मोदी की है, इसलिए  ज्यादातर नुकसान केवल भाजपा को ही उठाना पड़ सकता है।  

दरअसल, कांग्रेस और भाजपा सरकारों की किसान-विरोधी नीतियों की कहानी बीस साल से भी पुरानी है। 1983-84 से लेकर 2010-11 के दौरान देश के सकल घरेलू उत्पादन में खेती का योगदान घट कर आधा हो चुका था, बावजूद इसके कि 2009-10 के आंकड़ों के अनुसार देश की कुल श्रमशक्ति में 53 प्रतिशत लोग अपनी जीविका के लिए इसी क्षेत्र पर निर्भर करते हैं। पिछले तीस साल में हर नई सरकार ने खेती में सार्वजनिक निवेश में कमी, उर्वरक, बिजली तथा सिंचाई संबंधी सब्सिडी में कटौती, कृषि-उत्पादन को सार्वजनिक स्तर पर उपलब्ध कराने की व्यवस्था के खात्मे, खेती के लिए सार्वजनिक बैंकों द्वारा कम दर पर ऋण उपलब्ध कराने की व्यवस्था को भंग करने तथा विकसित देशों के सस्ते उत्पादों के आयात में ढील देने आदि के जरिए भारतीय खेती को विनाश के कगार पर पहुंचा दिया है।  

इन नीतियों की भीषण चोट छोटी जोत के किसानों पर पड़ी है। नतीजतन एक हेक्टेयर से कम जोत वाले 70 प्रतिशत किसानों की कुल आय (खेती, पशुपालन, गैर-खेतिहर व्यवसाय तथा मजदूरी जैसे तमाम स्नेतों को मिला कर) उनके निजी उपभोग के खर्च से भी कम हो गई है। ग्रामीण क्षेत्रों में इसका प्रभाव किसानों की बढ़ती ऋणग्रस्तता में देखा जा सकता है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2012-13 में देश की कुल खेतिहर आबादी में 52 प्रतिशत लोग कजर्मंद थे। किसान-परिवारों पर यह कर्ज औसतन 47,000 रुपए बैठता था। ऊपर से देश में एक किसान-परिवार को खेती से प्राप्त होने वाली औसत आय महज 36,972 रुपए थी। 

कांग्रेस की सरकारों द्वारा शुरू किए गए इस किसान विरोधी सिलसिले को मोदी सरकार ने पूरे उत्साह से आगे बढ़ाया है। 2014 के चुनाव अभियान के दौरान मोदी ने किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का वायदा किया था। अगर वाकई ऐसा हुआ होता तो किसानों को अपने लागत मूल्य पर 50 प्रतिशत का निश्चित लाभ मिलता। लेकिन सत्ता में आते ही मोदी सरकार अपने वायदे से पलट गई। कृषि-उत्पादों की सरकारी खरीद पर फिलहाल सरकार ने गहरी चुप्पी साध ली। इतना ही नहीं, इस दौरान सरकार ने खेती को उर्वरक के रूप में मिलने वाली सब्सिडी में और कटौती कर दी। इसके पीछे सरकार के आर्थिक सलाहकारों का तर्क यह था कि न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाया जाएगा तो मुद्रास्फीति बढ़ जाएगी।

असलियत यह है कि देश के करोड़ों किसानों को इस संकट से उबारने के लिए सरकार को ज्यादा से ज्यादा तीन लाख करोड़ रुपए खर्च करने पड़ते। लेकिन, केंद्र सरकार के 2018-19 के बजट में कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रलय के लिए महज 57,000 हजार करोड़ रुपयों का आवंटन किया गया है, जो कुल बजट का केवल 2।36 प्रतिशत बैठता है। आवंटन की यह राशि उस क्षेत्र के लिए है जिस पर देश की 50 प्रतिशत आबादी अपनी जीविका के लिए निर्भर करती है। इस मामले में गौर करने की बात यह है कि खेती से जुड़े अन्य क्षेत्रों जैसे ग्रामीण विकास, जल संसाधन तथा उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी के रूप में सरकार के कुल व्यय में गिरावट आई है। सकल घरेलू उत्पादन के नजरिये से देखें तो पिछली सरकार के आखिरी साल में खेती से संबंधित उपरोक्त क्षेत्रों पर सरकार का व्यय पहले ही बहुत कम - केवल 1।43 प्रतिशत था, जो मोदी सरकार के पहले वर्ष में घट कर सिर्फ 1।34 प्रतिशत रह गया है। 

अमित शाह की सरकार ने समर्थन मूल्य में जिस बढ़ोत्तरी की घोषणा की है, उसका किरदार शक के घेरे में है। कृषि-विशेषज्ञों की मान्यता है कि इसमें सरकार ने चालाकी की है। किसान इस बात को समझते हैं। उनकी निराशा और बढ़ी है। देश में 1995 के बाद तीन लाख से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके हैं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि मुंबई और दिल्ली के राजपथों पर किसानों की इन प्रतिरोध-यात्रओं के साथ आत्महत्या कर चुके किसानों के अदृश्य कदम भी हैं। किसान विरोधी सरकारों के लिए ये यात्रएं स्पष्ट रूप से एक चुनौती हैं।

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