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विजय दर्डा का ब्लॉग: रस्म बन गए दिन, भूल गए उनकी बातें..!

By विजय दर्डा | Published: April 18, 2022 1:15 PM

महापुरुषों और दिव्य विभूतियों के पूजन और स्मरण के आयोजन तो आज बड़े-बड़े और भव्य होने लगे हैं लेकिन हकीकयत यह है कि सद्विचारों के लिए कोई जगह दिखाई नहीं देती. बहुत से आयोजनों को राजनीति ने अपना शिकार बना लिया.

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पिछले सप्ताह जब मैं पूरे उत्साह के साथ मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम का जन्मोत्सव रामनवमी मना रहा था, भगवान महावीर जन्म कल्याणक महोत्सव मना रहा था, महामानव डॉ. बाबासाहब आंबेडकर की जयंती मना रहा था तब मेरे जेहन में बार-बार यह सवाल भी कौंध रहा था कि ऐसी दिव्य विभूतियों और महापुरुषों के बताए रास्ते पर आखिर लोग क्यों नहीं चल रहे हैं? 

पूजन कर लेना, उत्सव मना लेना, जुलूस निकाल लेना, महापुरुषों के जीवन प्रसंगों की चर्चा कर लेना ही क्या पर्याप्त है? महत्वपूर्ण दिन केवल रस्म बनकर क्यों रह गए हैं और प्रेरणात्मक बातें क्यों दरकिनार हो गई हैं? स्वामी विवेकानंद से लेकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों के साथ भी तो यही हो रहा है.  

निश्चित रूप से महापुरुषों की जयंती मनाने की शुरुआत का कारण यही रहा होगा कि उनके सद्विचारों से आने वाली पीढ़ियां प्रेरित होती रहें. महापुरुषों के बताए रास्ते पर लोग चलें लेकिन वक्त के साथ आयोजनों की भीड़ में महापुरुषों के विचार खोते चले गए. हमें जिस रास्ते पर जाना था, लोगों ने वो रास्ते ही छोड़ दिए. यदि मैं पुरानी बात करूं तो भगवान श्रीराम ने अन्याय के खिलाफ लड़ाई के लिए, वनवासियों के जीवन के उत्थान के लिए और राक्षसी प्रवृत्ति को समाप्त करने के लिए तो अपना संपूर्ण जीवन न्यौछावर किया ही, न्याय की भी नई मिसाल कायम की. 

माता सीता पर राज्य के एक नागरिक ने कोई टिप्पणी कर दी तो माता सीता को भी अग्निपरीक्षा देनी पड़ी. भीलनी के बेर खाकर उन्होंने वर्ण व्यवस्था के खिलाफ संदेश दिया. क्या प्रभु श्रीराम के इन संदेशों को हमने आत्मसात किया? कहते हैं कि उनके राज में हर कोई प्रसन्न था. सुख सुविधाओं से परिपूर्ण था. आज भी राम राज की बात तो बहुत होती है लेकिन क्या हमारी शासन व्यवस्था ने प्रभु श्रीराम की शासन प्रणाली के सद्गुणों को अपनाया?

भगवान महावीर ने अहिंसा की बात की, क्षमा की बात की, दया की बात की. इंसानियत और प्रकृति की रक्षा के साथ अपरिग्रह का सिद्धांत हमें दिया. वैज्ञानिक जीवन प्रणाली का रास्ता दिखाया लेकिन क्या हम उनके बताए मार्ग पर चल रहे हैं? यहां मैं एक बात कहना चाहूंगा कि कोई भी महापुरुष या अवतार किसी भी मान्यता के हों लेकिन उनके विचार और उनकी सीख पूरी दुनिया के लिए होती है. उनके विचारों को धर्म की डोर में नहीं बांधा जा सकता है. 

भगवान महावीर ने यदि अहिंसा की बात की तो पूरी दुनिया के लिए की. आज हम सब उनके विचारों की प्रशंसा करते हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी सत्य और अहिंसा की बात की लेकिन सामान्य जनजीवन में देखें तो हर ओर हिंसा का बोलबाला है. चोरी, डकैती, लूट, हत्या, छल और कपट ने समाज को नरक बना कर रख दिया है. सत्य गुम होता नजर आ रहा है और जिस अहिंसा के बल पर बापू ने ब्रिटिश साम्राज्य को हिंदुस्तान से उखाड़ फेंका था वह अहिंसा खतरे में है. 

लोग अत्यंत असहिष्णु हो गए हैं. छोटी-छोटी बातों में धर्म को लेकर आ जाते हैं. अभी रमजान का महीना चल रहा है. जीवन में हम पाकीजगी ला पाएं, एक-दूसरे के गले मिलें और  प्रेम का प्रकाश फैला पाएं, इससे बेहतर और क्या हो सकता है?

भारत रत्न डॉ. बाबासाहब  आंबेडकर ने हमारे संविधान की रचना में तो प्रमुख भूमिका निभाई ही, उन्होंने समता मूलक समाज की सीख भी हमें दी लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि हमने उनकी मूर्तियां तो खूब स्थापित कीं लेकिन समता के रास्ते पर उस तेजी से न बढ़ सके, जिस रफ्तार से हमें बढ़ना चाहिए था. 

बाबासाहब की विलक्षण प्रतिभा के कारण ही इस देश ने उन्हें बड़े सम्मान के साथ महामानव कहा. उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ती चली गई. उनके योगदान को हर किसी ने सराहा. उनके विचारों को भारत की किस्मत बदलने वाला बताया. समाज और शासन ने उनकी पूजा की, उन्हें नमन किया लेकिन उनके रास्ते को ठीक तरह से नहीं अपनाया. बाबासाहब की सीख केवल हिंदुस्तान के लिए नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए है. उन्होंने समानता की बात की तो पूरी दुनिया के लिए की. 

आज हम देख रहे हैं कि पूरा अफ्रीका तो असमानता की आग में झुलस ही रहा है, अत्यंत प्रगत राष्ट्र अमेरिका भी जाति की जकड़न में है. बाबासाहब की सीख को मानते हुए यदि देश और दुनिया  ने संकल्प ले लिया होता तो जाति प्रथा को हम समाप्त कर चुके होते. बाबासाहब ने कहा था कि मानवता ही मनुष्य का धर्म है. 

उन्होंने शासन व्यवस्था को बेहतर बनाने का रास्ता दिखाया था लेकन हमने उसे भी पूरी तरह अंगीकार नहीं किया. इसके लिए किसी सरकार को दोषी ठहराना उचित नहीं है. केंद्र की सत्ता में पहले कांग्रेस थी, आज भाजपा है. राज्यों में कहीं वामपंथी हैं, कहीं आम आदमी पार्टी है तो कहीं तृणमूल कांग्रेस है. सत्ताएं तो बदलती रही हैं, मुद्दे की बात है बेहतर शासन प्रणाली की.  

पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और जैन आचार्य महाप्रज्ञ जी ने संयुक्त रूप से जीवन विज्ञान प्रकल्प हमें दिया लेकिन लोगों ने इस मार्ग का भी दृढ़ता के साथ अनुसरण नहीं किया. यदि आप देखें तो सद्गुणों की सीख को मनुष्य के जीवन में उतार पाने में शिक्षा व्यवस्था भी कमजोर साबित हुई है. हर धर्म और प्रत्येक महापुरुष ने हमें प्रेम की भाषा सिखाई है. मनुष्य को मनुष्य से प्रेम करने का मार्ग दिखाया है. सुखमय जीवन का सार तत्व हमें दिया है लेकिन हमने सीखों को दरकिनार कर दिया. महापुरुषों को पाठ्यपुस्तकों और आयोजन में समेट दिया. 

नतीजा सामने है. इंसान को इंसान ही जिंदा जला रहा है. धर्म के नाम पर कत्लेआम हो रहा है. ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही है. जो बलशाली है वो हमलावर बन बैठा है. जबकि होना यह चाहिए कि जो जितना शक्तिशाली है उसमें उतनी ही विनम्रता होनी चाहिए, करुणा होनी चाहिए, क्षमा का भाव होना चाहिए, अहिंसा होनी चाहिए

...तो फिर हम हिंसक क्यों हो रहे हैं? अपनी अगली पीढ़ी को हम कैसा समाज और कैसा देश सौंप रहे हैं? इस गंभीर मसले पर एक बार सोचिएगा जरूर. हमारी एक छोटी सी शुरुआत भी परिवर्तन का बड़ा माध्यम बन सकती है.

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