नए के प्रति आकर्षण मनुष्य की सहज स्वाभाविक प्रवृत्ति है. ‘नया’ अर्थात् जो पहले से भिन्न है, मौलिक है अपनी अलग पहचान बनाता है. यह भिन्नता सृजनात्मकता का प्राण कही जाती है. उसी कृति या आविष्कार को प्रतिष्ठा मिलती है, पुरस्कार मिलता है जिसमें कुछ नयापन होता है.
हालांकि, एक सच यह भी है कि अक्सर नए को अपनी प्रतिष्ठा अर्जित करना आसान नहीं होता, उसे पुराने से टक्कर लेनी पड़ती है और प्रतिरोध की पीड़ा और उपेक्षा भी सहनी पड़ती है.
कभी ऐसे ही क्षण में संस्कृत के शीर्षस्थ कवि कालिदास को यह कहना पड़ा कि ‘ पुराना सब अच्छा है और नया खराब है’ ऐसा तो मूढ़ और अविवेकी लोग ही सोचते हैं जो दूसरों की कही बात सुन कर फैसला लेते हैं परंतु साधु या विवेकसंपन्न लोग सोच-विचार कर और परख कर ही अच्छाई या बुराई का निश्चय करते हैं.
भविष्य पर्दे के पीछे रहता है इसलिए अज्ञात और अनागत का आकर्षण सदैव रहता है. उससे रूबरू होने का अनुभव उत्साह और उत्सव का क्षण बन जाता है. ऐसे में एक किस्म का उन्माद का भाव आता है जो नया वर्ष मनाते समय अक्सर दिखता है विशेषकर युवा वर्ग में जिसके अतिरेक के कभी-कभी घातक परिणाम भी हो जाते हैं.
नया वर्ष का अवसर उनके लिए भविष्य की एक खिड़की या एक किस्म के समय के पुल जैसा होता है जब वर्तमान में रहते हुए (मानसिक स्तर पर) भविष्य में छलांग लगाते हैं. अक्सर सब लोग खुद को संबोधित करते हैं. अपने को टटोलते हुए खोने-पाने का हिसाब भी लगाते हैं.
साल भर जिन उपलब्धियों और विफलताओं का अनुभव करते रहे हैं वे सब मुक्त करने वाले और बांधने वाले होते हैं. पर वे ठहरे अतीत के अनुभव जिनसे अपना रिश्ता परिभाषित करना हमारा काम होता है, उनसे बंधना या उन्हीं में अटक कर ठहर जाना निरर्थक है.
काल के पहिए को पीछे घुमाने की जगह अतीत के अनुभव का लाभ लेते हुए नए सृजन की ओर आगे बढ़ने का शुभ संकल्प ही आगामी जीवन में पाथेय हो सकता है.