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ब्लॉग: भाषा से ही अस्तित्व अर्थवान होता है!

By गिरीश्वर मिश्र | Published: February 21, 2024 2:36 PM

देश के विकास और भावी भारत की सामर्थ्य को सुनिश्चित करने की जरूरत को ध्यान में रखते हुए शिक्षा जगत के लिए मातृभाषा के उपयोग पर गंभीरता से लेना होगा।

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हमारे जीवन में भाषा कुछ इस तरह और इतनी गहरी पैठी हुई है कि आम तौर पर हमें उसकी शक्ति का अंदाजा ही नहीं लगता, कुछ वैसे ही जैसे सूरज की रोशनी से सारी दुनिया को जीवन शक्ति मिलती है पर सूरज प्रकृति का स्वाभाविक हिस्सा है, पूरी तरह से नैसर्गिक, जबकि भाषा मनुष्य की रचना, एक ऐसी कृति जो उसके आविष्कार और अभ्यास पर टिकी होती है, पर है सूरज की ही तरह शक्तिशाली। दुनिया क्या है और उस दुनिया में हम क्या कुछ करते हैं या कर सकते हैं यह सब बहुत हद तक भाषा का चमत्कार लगता है।

भाषा के लेंस से हम दुनिया को देखते-समझते हैं। सच कहें तो भाषा के तिलस्म का विस्तार अछोर और गहराई अथाह होती है। चूंकि भाषा सतत सर्जनशील उपक्रम होने के कारण उसका तिलस्म कभी कम होने वाला नहीं है। वह आगे भी अथाह ही बना रहेगा।

भाषा में प्रयोग भी होते हैं और वह अपनी शक्ति का स्वयं अतिक्रमण करती रहती है। उसकी रचनाशीलता जीवन में ताजगी बनाए रखती है। भाषा से क्या कुछ नहीं होता। पर भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम ही नहीं होती उसका अपना भी निजी वजूद होता है यानी भाषिक कर्म की अपनी सत्ता भी होती है। उसका सौष्ठव और सौंदर्य साहित्य में ही नहीं हमारे आचरण का खास भी हिस्सा होता है। कब क्या और कैसे बोलें इसका भी सामाजिक रूप से स्वीकृत व्याकरण होता है और इसके सामाजिक मानक हमारे निजी और सार्वजनिक जीवन को सहज या मुश्किल बनाते रहते हैं। सभ्य समाज में भाषा की एक बनी बनाई दुनिया बच्चे को तैयार मिलती है।

उसके परिवार में प्रयुक्त भाषा के प्रवाह के बीच वह अपना जीवन शुरू करता है। ध्वनियां उसके कानों में गूंजती रहती है और अपने परिचय का दायरा बनाती रहती हैं। परिचित होता हुआ बच्चा इन ध्वनियों का स्वाद पाता रहता है। उच्चारण के यंत्र के परिपक्व होने के साथ वह शब्दों और वाक्यों का प्रयोग करना शुरू कर देता है। सभ्य समाज का सदस्य बनाने में भाषा का बड़ा हाथ होता है।बिना किसी स्कूल गए अपनी मातृभाषा की आधारभूत प्रयोगशीलता बच्चे को स्वतः खेलते-कूदते हुए मिल जाती है।

भाषा – प्रयोग की शक्ति नैसर्गिक या प्राकृतिक होती है और परिवार के अनौपचारिक परिवेश में उसका उद्घाटन और विकास होता रहता है। देश के विकास और भावी भारत की सामर्थ्य को सुनिश्चित करने की जरूरत को ध्यान में रखते हुए शिक्षा जगत के लिए मातृभाषा के उपयोग पर गंभीरता से लेना होगा। भारत का भाषाई संसार वैविध्यपूर्ण और समृद्ध है इसका लाभ उठाना आवश्यक है। इस सत्य की उपेक्षा कर भाषाई उपनिवेश को बढ़ावा देने पर मानसिक गुलामी ही बढ़ेगी।

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