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कृपाशंकर चौबे का ब्लॉगः विश्व कवि की आज भी बनी हुई है वैश्विक प्रासंगिकता

By कृपाशंकर चौबे | Published: May 07, 2022 12:46 PM

रवींद्रनाथ एशिया के पहले लेखक थे जिन्हें 109 साल पहले 1913 में साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार मिला था। देश-विदेश की कई भाषाओं में रवींद्रनाथ की रचनाएं अनूदित हैं।

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पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा से लेकर बांग्लादेश में रवींद्रनाथ टैगोर (07 मई 1861-07 अगस्त 1941) के लिए जो आवेग दिखता है, उस तरह का आवेग इस पूरे उपमहाद्वीप में किसी दूसरे लेखक के लिए नहीं दिखता। यह तो सब जानते हैं कि भारत का राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ और बांग्लादेश का राष्ट्रगान ‘आमार सोनार बांग्ला’ गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर का लिखा है लेकिन जो तथ्य अल्पचर्चित है, वह यह कि श्रीलंका का राष्ट्रगान भी उन्हीं का लिखा है। इसका खुलासा पहली बार बांग्लादेश के वरिष्ठ साहित्यकार जुनायेदुल हक ने वर्ष 2011 में एक अंग्रेजी दैनिक  में प्रकाशित अपने शोध आलेख में किया था। बाद में शहरीयार कबीर नामक शोधार्थी ने भी अपने शोध में इस तथ्य की पुष्टि की। उस शोध के मुताबिक आनंद समारकुन श्रीलंका से कला की शिक्षा लेने शांतिनिकेतन आए थे। उन्होंने गुरुदेव से अपने देश के लिए एक गीत लिखने का आग्रह किया। गुरुदेव ने 1938 में उनके लिए लिखा-‘नमो नमो श्रीलंका माता।’ आनंद ने उसका सिंहली में अनुवाद किया जिसे श्रीलंका सरकार ने 1951 में राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया।

रवींद्रनाथ एशिया के पहले लेखक थे जिन्हें 109 साल पहले 1913 में साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार मिला था। देश-विदेश की कई भाषाओं में रवींद्रनाथ की रचनाएं अनूदित हैं। एशिया और दुनिया में रवींद्रनाथ आज भी मनोयोग से पढ़े जाते हैं। कई भाषाओं में टैगोर की जीवनी भी लिखी गई है। मलयालम और हिंदी में तो उनके जीवन पर केंद्रित उपन्यास भी लिखा गया है : टैगोर एक जीवनी। उसके लेखक हैं के. सी. अजयकुमार। इस कृति में रवींद्रनाथ के बाल्यकाल से लेकर उनके अंतिम समय तक की गाथा प्रामाणिक ढंग से कही गई है। तेईस अध्यायों में विभाजित यह किताब महामानव रवींद्रनाथ के भाव लोक का दर्शन कराती है और उनके भारत बोध का भी। विश्व कवि समस्त ब्रह्मांड के मंगल की कामना करते थे। ‘भारत तीर्थ’ कविता में रवींद्रनाथ कहते हैं- आर्य, अनार्य, द्रविड़, चीनी, शक, हूण, पठान, मुगल सब यहां एक देह में लीन हो गए। यह देह ही भारत बोध है।

ऐसे भारत बोध का कवि इतना विलक्षण शिल्पी था जिसके नाम से संगीत चल पड़ा। बंगाल और त्रिपुरा से लेकर बांग्लादेश तक में रवींद्र संगीत घर-घर गाया जाता है। मन्ना डे से लेकर स्वागतालक्ष्मी और द्विजेन मुखोपाध्याय जैसे किंवदंती गायकों ने रवींद्र संगीत को पूरी दुनिया में फैलाया और भारत की बात करें और उदाहरण के लिए एक विधा को लें तो आज भी हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के रंगमंच के लिए रवींद्रनाथ अपरिहार्य बने हुए हैं। जयपुर के रंगकर्मी लयीक हसन ‘एकला चलो रे’ का मंचन करते हैं तो कोलकाता में उषा गांगुली ‘चंडालिका’ का मंचन करती थीं। श्यामानंद जालान ने ‘घरे-बाइरे’ का हिंदी में नाट्य रूपांतरण कर मंचन किया था। जालान की तरह ही प्रतिभा अग्रवाल भी ‘घर-बाहर’ का मंचन करती थीं। हबीब तनवीर ने 2005 में रवींद्रनाथ के लिखे ‘विसर्जन’ का मंचन किया था।

रवींद्रनाथ ने अपने जीवनकाल में लगातार साठ वर्षों तक बांग्ला रंगमंच को सींचा था। 1881 में उनके अपने नाटक ‘बाल्मीकि प्रतिभा’ का मंचन हुआ था। उसके एक साल बाद 1882 में ‘कालमृगया’, 1889 में ‘राजा उ रानी’, 1890 में ‘विसर्जन’ का मंचन हुआ था। बीसवीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक में रवींद्रनाथ ठाकुर के जिन नाटकों की बंगाल में धूम रही, वे हैं-‘चिरकुमार सभा’, ‘गृहप्रवेश’, ‘वशीकरण’, ‘विदाय अभिशाप’, ‘शोध बोध’, ‘चित्रांगदा’, ‘शेष रक्षा’, ‘तपती’ और ‘मुक्तिर उपाय’। रवींद्रनाथ ने खुद भी अपने नाटकों में अभिनय किया। 1941 में रवींद्रनाथ का निधन हो गया किंतु उसके बाद भी बांग्ला रंगमंच के लिए वे अनिवार्य बने रहे और आज भी बने हुए हैं। 1951 में उत्पल दत्त ने रवींद्रनाथ के नाटक ‘विसर्जन’ का और 1953 में रवींद्रनाथ के ही ‘अचलायतन’ का मंचन किया था। उसके बाद शंभु मित्र मंच पर आए और पांच दशकों तक यानी बीसवीं शताब्दी के आखिरी दशक तक रवींद्रनाथ के नाटक खेलते रहे। 

टॅग्स :रवींद्रनाथ टैगोररबीन्द्र जयंती
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