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आंकड़ों के जरिये बेरोजगारी दूर करने की कोशिश 

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: September 6, 2018 04:01 IST

कुछ अर्सा पहले जब संसद में वर्तमान सरकार के खिलाफ विपक्ष ने अविश्वास का प्रस्ताव रखा था तो प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में रोजगार के संबंध में कुछ आंकड़े दिए थे और यह बताने की चेष्टा की थी कि सरकार न केवल इस समस्या की गंभीरता को समझ रही है, बल्कि इसके समाधान के लिए जागरूक भी है।

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विश्वनाथ सचदेव, जाने-माने स्तंभकार।    देश के पहले आम चुनाव की बात तो याद नहीं, पर 1957 में हुए दूसरे आम चुनाव में एक नारा ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ का लगा करता था। कहा जाता था कि रोटी-कपड़ा दे न सके जो, वह सरकार निकम्मी है। निकम्मी सरकार को बदलने की आवाज उठाने में तत्कालीन पार्टी भारतीय जन संघ सबसे आगे थी। और मुद्दा बेरोजगारी का था। यह विडंबना ही है कि तबसे लेकर आज के लगभग छह दशकों में हम बेरोजगारी के इस भूत से अपना पीछा नहीं छुड़ा पाए। इस बीच कई सरकारें बनी-बिगड़ीं। और अब जनसंघ के नए रूप भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। 

पिछली सरकारों की तरह ही इस सरकार ने भी रोटी, कपड़ा और मकान के बुनियादी मुद्दे को उठाया था और वादा किया था कि देश के करोड़ों बेरोजगारों की रोजी-रोटी की व्यवस्था करना, यानी उन्हें रोजगार उपलब्ध कराना सरकार की प्राथमिकता होगी। अब वर्तमान सरकार का कार्यकाल समाप्ति की ओर है और दुर्भाग्य से रोजगार के मोर्चे पर कोई बड़ी सफलता दिखाई नहीं दे रही। दुर्भाग्य की बात यह भी है कि बेरोजगारों और दिए गए रोजगार के कोई आधिकारिक आंकड़े भी देश के पास नहीं हैं। लेकिन, जब कुछ ऐसा घटता है, जैसा कि पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में घटा, तो स्थिति की भयावहता सामने आ ही जाती है। 

एक समाचार अखबारों में छपा है, और टी.वी. के समाचार चैनलों में भी दिखाया गया है कि उत्तर प्रदेश में पुलिस विभाग में चपरासी के 62 पदों के लिए 93 हजार युवाओं ने अर्जी दी है। सवाल सिर्फ चपरासी बनने के इच्छुकों की संख्या का ही नहीं है, इससे बड़ा सवाल तो यह है कि आखिर वे कौन हैं जो इस नौकरी के लिए बेचैन हो रहे हैं? इस पद के लिए जरूरी योग्यता मात्र पांचवीं कक्षा तक की पढ़ाई थी और साइकिल चलाना। लेकिन अर्जी  देनेवालों में पचास हजार स्नातक हैं और 28 हजार स्नातकोत्तर योग्यता वाले हैं। यही नहीं, इनमें से 3700 अभ्यर्थी पी।एच।डी की उपाधि-प्राप्त हैं। अभ्यर्थियों में चार्टर्ड एकाउंटेंट और एमबीए भी हैं। 

ज्ञातव्य है कि उत्तर प्रदेश की पिछली सरकार के समय भी सचिवालय में चपरासी के पद के लिए कुछ ऐसा ही घमासान मचा था। तब 374 पदों के लिए चौबीस लाख आवेदन आए थे और आवेदनकर्ताओं में विश्वविद्यालयों की डिग्रियों वाले बेरोजगार शामिल थे। सुना है, इस स्थिति को देखते हुए तत्कालीन सरकार ने भर्ती की प्रक्रिया ही स्थगित कर दी थी। लेकिन स्थगित निर्णयों से तो देश नहीं चलेगा। और न ही रोजगार की इस भयावह स्थिति पर चुप्पी साधकर या फिर आंकड़ों का जाल बिछाकर देश के युवाओं की रोटी, कपड़ा और मकान की मांग का कोई हल निकल सकता है। 

कुछ अर्सा पहले जब संसद में वर्तमान सरकार के खिलाफ विपक्ष ने अविश्वास का प्रस्ताव रखा था तो प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में रोजगार के संबंध में कुछ आंकड़े दिए थे और यह बताने की चेष्टा की थी कि सरकार न केवल इस समस्या की गंभीरता को समझ रही है, बल्कि इसके समाधान के लिए जागरूक भी है। प्रधानमंत्री द्वारा इस संदर्भ में तब दिए गए आंकड़ों पर देश में गंभीर बहस होनी चाहिए थी, पर तब सारा ध्यान विपक्ष के नेता की झप्पी  की ओर मोड़ दिया गया। राहुल गांधी की उस झप्पी और उसके बाद उनके द्वारा किए गए आंख के इशारे ने बरोजगारी के गंभीर मुद्दे को ढंक-सा लिया। और देश उस बहस से वंचित रह गया जो बेरोजगारी के मुद्दे पर देश में होनी चाहिए थी। 

हाल ही में एक इंटरव्यू में प्रधानमंत्री ने एक सवाल के जवाब में कहा कि पिछले चार वर्षों में, यानी वर्तमान सरकार के कार्यकाल में, बारह करोड़ मुद्रा ऋण  दिए गए हैं। यदि एक ऋण से एक व्यक्ति को भी रोजगार मिलता है तो इन चार वर्षों में बारह करोड़ लोगों को रोजगार मिला। लेकिन क्या सचमुच ऐसा हुआ है? इन चार वर्षों में बैंकों ने मुद्रा-ऋणों के रूप में कुल 632383 करोड़ बांटे हैं। 

ऋण-प्राप्त करने वालों की संख्या है लगभग सवा तेरह करोड़। इसका अर्थ हुआ औसतन हर ऋण लेने वाले को लगभग 42 हजार रु पए मिले। क्या  यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि 42 हजार रु पए में कौन-सा रोजगार शुरू किया जा सकता है या चलाया जा सकता है। फिर भी, यदि यह मान भी लिया जाए कि इन मुद्रा-ऋणों को पाने वाले व्यक्तियों को रोजगार मिल गया,  तो इस हिसाब से तीन वर्षों में बारह करोड़ से अधिक लोग रोजगार पा गए। तब तो बेरोजगारी खत्म हो जानी चाहिए- तो फिर रोजगार-दफ्तरों में दर्ज सवा चार करोड़ से अधिक बेरोजगार कहां से आ गए? उत्तर प्रदेश में चपरासी के 62 पदों के लिए लगभग एक लाख आवेदनकर्ता कौन हैं? 

इन सवालों का जवाब यही है कि सरकारी आंकड़े और सरकारी बयान विश्वसनीय नहीं हैं। किसी भी सरकार के लिए यह स्थिति अच्छी नहीं है। सच पूछें तो खतरनाक है। जनतंत्र में जनता का विश्वास ही सरकार की असली ताकत होता है। यह विश्वास बना रहे, इसके लिए जरूरी है कि सरकार के काम में, सरकार के दावों और वादों में ईमानदारी व पारदर्शिता झलके। 

टॅग्स :बेरोजगारीभारतीय जनता पार्टी (बीजेपी)
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