Delhi Car Blast: लाल किला विस्फोट ने आक्रोश पैदा कर दिया है, उच्च-स्तरीय बैठकें हो रही हैं और सभी एजेंसियों को सक्रिय कर दिया गया है. फिर भी एक बात विशेष दिख रही है और वह है पाकिस्तान व जैश-ए-मोहम्मद पर सरकार की असामान्य चुप्पी - जबकि श्रीनगर में हाल ही में हुई जांच, जिसमें ‘सफेद कोट’ मॉड्यूल का उदय और जैश-ए-मोहम्मद के पोस्टरों का दिखना शामिल है, ने इस समूह की फिर से सक्रियता के स्पष्ट संकेत दिए हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भूटान में बोलते हुए इस विस्फोट को एक ‘साजिश’ बताया और वादा किया कि ‘साजिशकर्ताओं को बख्शा नहीं जाएगा’.
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने चेतावनी दी कि दोषियों को हमारी एजेंसियों के ‘पूरे कोप’ का सामना करना पड़ेगा. लेकिन भारत ने जैश-ए-मोहम्मद, पाकिस्तान या सीमा पार के आकाओं का नाम नहीं लिया है - जो अप्रैल में पहलगाम में हुई पिछली आतंकी घटना के बिल्कुल विपरीत है. पहलगाम में पाकिस्तान और जैश-ए-मोहम्मद के संबंध स्पष्ट रूप से स्थापित हो गए थे, जिसके कारण ऑपरेशन सिंदूर चलाया गया.
इससे कुछ अहम सवाल उठते हैं. अगर कश्मीर में जैश-ए-मोहम्मद के नेटवर्क फिर से उभर रहे हैं, तो केंद्र स्पष्ट रूप से नाम लेने से क्यों बच रहा है? क्या जांचकर्ताओं को कुछ ज्यादा जटिल दिख रहा है- शायद कोई हाइब्रिड मॉड्यूल, कोई कट-आउट, या कोई घरेलू लिंक जिस पर सावधानी बरतने की जरूरत है? या क्या नई दिल्ली समय से पहले आरोप लगाने के कूटनीतिक झटके से बचना चाहती है?
अधिकारी तीन कारण बताते हैं. पहला, सरकार सार्वजनिक रूप से जिम्मेदारी लेने से पहले एक ठोस साक्ष्य श्रृंखला चाहती है- खासकर पिछले उदाहरणों के बाद, जहां शुरुआत में ही नाम उजागर करने से जांचें जटिल हो गई थीं. दूसरा, भारत का कूटनीतिक रुख अब एफएटीएफ और वैश्विक आतंकवाद-रोधी मंचों पर अपना पक्ष मजबूत करने के लिए सबूतों से भरपूर दावे करने का है.
तीसरा, अपरिपक्व आरोप लगाने से इस्लामाबाद को विस्फोट को ‘राजनीतिकृत’ बताकर खारिज करने का मौका मिल जाएगा. इसके अलावा, ‘सफेदपोश’ आतंकी घटना में पहली बार तुर्की का पहलू भी सामने आया है. संदेश सोचा-समझा है: तथ्यों के आधार पर आगे बढ़ें, धारणाओं के आधार पर नहीं. सोची-समझी खामोशी से पता चलता है कि सरकार चाहती है कि इससे पहले कि दिल्ली इस मामले को भू-राजनीतिक स्तर पर आगे बढ़ाए, जांच पहले बोले और निर्णायक रूप से.
पुलिस डॉ. उमर नबी को पकड़ने में क्यों विफल रही?
जांच एजेंसियां कह रही हैं कि लाल किला विस्फोट का मास्टरमाइंड डॉ. उमर नबी घबरा गया था और उसकी कार में लाल किले के पास दुर्घटनावश विस्फोट हो गया. लेकिन कई सवालों के जवाब नहीं मिल रहे हैं, जैसे 8-9 नवंबर की रात जब अल-फलाह विश्वविद्यालय परिसर में साजिश में शामिल डॉक्टरों को पकड़ने के लिए एक साथ छापेमारी की गई थी,
तब जम्मू-कश्मीर और हरियाणा पुलिस ने हरियाणा के टोल प्लाजा को सूचित क्यों नहीं किया? यह तो तय है कि डॉ. उमर नबी का नाम 9 नवंबर को डॉ. मुजम्मिल गनई ने लिया था और उसकी तलाश शुरू हो गई थी. लेकिन डॉ. उमर 30 अक्तूबर को ही अल-फलाह संस्थान से भाग गया था. उसे पता था कि डॉ. गनई जल्द ही इस मॉड्यूल में उसकी संलिप्तता का खुलासा कर सकता है.
वह अपनी कार के साथ दस दिनों से ज्यादा समय तक पास के नूह शहर में एक किराए के मकान में छिपा रहा. लेकिन पूरे हरियाणा के टोल प्लाजा को सभी बाहर जाने वाले वाहनों की तुरंत जांच करने के लिए सूचित नहीं किया गया. उमर की आई20 कार 9 नवंबर की आधी रात को दिल्ली में प्रवेश करते समय एक टोल प्लाजा पर देखी गई थी.
9-10 नवंबर के दौरान दिल्ली में डॉ. उमर या उसकी कार एचआर26 को लेकर कोई अलर्ट नहीं था. अन्य खामियां भी थीं. लेकिन भारत भाग्यशाली था कि इस ‘डॉक्टर्स टेरर’ मॉड्यूल का समय रहते एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने पर्दाफाश कर दिया, जिन्होंने खुद 2010 में चिकित्सा की डिग्री हासिल की थी, लेकिन पुलिस बनना चुना,
यूपीएससी परीक्षा पास की और बाद में 2025 में श्रीनगर में एसएसपी के रूप में तैनात हुए. 18 अक्तूबर को जब जैश-ए-मोहम्मद के पोस्टर दिखाई दिए, तब नौगाम पुलिस स्टेशन उनके अधिकार क्षेत्र में आता था. एसएसपी डॉ. जीवी संदीप चक्रवर्ती ने उन्हें गुमराह युवाओं की एक नियमित हरकत मानकर खारिज नहीं किया और जांच के आदेश दिए. 18 अक्तूबर को कश्मीर घाटी में जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) के पोस्टरों के साथ जो शुरू हुआ, वह 10 नवंबर को दिल्ली के लाल किले के पास एक विस्फोट के साथ समाप्त हुआ. बाकी इतिहास है.
कागजों पर स्मार्ट पुलिसिंग, जमीन पर नाकामी
यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है कि कैसे स्मार्ट पुलिस थानों की अनुपस्थिति संदिग्धों को छूट देती है. प्रधानमंत्री द्वारा ‘स्मार्ट पुलिसिंग’ शब्द गढ़े जाने के लगभग दस साल बाद भी, भारत में अभी तक एक भी स्मार्ट पुलिस स्टेशन चालू नहीं है. अनुमान और तैयारियों के बीच का अंतर अब अनदेखा नहीं किया जा सकता - और महंगा भी है.
जांचकर्ता मानते हैं कि अगर सबसे बुनियादी स्मार्ट पुलिसिंग सुविधाएं भी मौजूद होतीं, जैसे कि आटोमेटेड आईडी वेरिफिकेशन, इंटीग्रेटेड क्रिमिनल डेटाबेस, वेहिकल फ्लैगिंग या एनसीआरपी के साथ रीयल-टाइम अलर्ट सिंकिंग, तो आतंकी श्रृंखला के एक प्रमुख संदिग्ध डॉ. उमर को हरियाणा के एक चेक पोस्ट पर रोका जा सकता था.
इसके बजाय, भारत की चौकियां अभी भी मैनुअल, कागज-चालित और राष्ट्रीय ग्रिड से कटी हुई हैं. हरियाणा भी इसका अपवाद नहीं है - किसी भी राज्य ने ऐसा कोई स्टेशन नहीं बनाया है जो वादा किए गए स्मार्ट मानकों को पूरा करता हो: निर्बाध डिजिटल वर्कफ्लो, व्यवहार विश्लेषण, साइबर-लिंक्ड कमांड सेंटर या एआई-असिस्टेड सस्पेक्ट ट्रेसिंग.
सरकार ने दर्जनों पहलों की सूची बनाई है- एएसयूएमपी अपग्रेड, साइट्रेन कोर्स, 33 राज्यों में साइबर-फोरेंसिक लैब, जेसीसीटी टीमें और साप्ताहिक सहकर्मी-शिक्षण सत्र. लेकिन ये समानांतर साइबर सुधार ही हैं, पुराने पुलिस स्टेशन के ढांचे का प्रतिस्थापन नहीं.
एकीकृत डेटा पाइपलाइन, रीयल-टाइम ट्रैकिंग या स्वचालित रेड-फ्लैग तंत्र के बिना, अपराध और आतंकवादी गतिविधियों के संदिग्ध बिना कोई डिजिटल पदचिह्न छोड़े जिलों में घूमते रहेंगे. एक दशक में ‘स्मार्ट पुलिसिंग’ ने प्रभावशाली प्रस्तुतियां तो दीं - लेकिन स्मार्ट पुलिस स्टेशन नहीं, जो इन जांचों के परिणामों को बदल सकते थे.