केरल में भारतीय जनता पार्टी लंबे समय से ऐसे प्रभावशाली नेता की तलाश में है जो लोकप्रिय हो, प्रशासनिक अनुभव रखता हो और समाज के सभी वर्गों में जिसकी स्वीकार्यता हो. असम में यह भूमिका हिमंता बिस्वा शर्मा ने निभाई थी. कांग्रेस छोड़ने के बाद उन्होंने न केवल भाजपा की चुनावी स्थिति बदली, बल्कि पूरे पूर्वोत्तर का राजनीतिक संतुलन बदल दिया. अब पार्टी की रणनीतिक चर्चा में एक सवाल लगातार उभर रहा है कि क्या शशि थरूरकेरल में वही बदलाव ला सकते हैं? यह सवाल इसलिए और प्रासंगिक हो गया है क्योंकि केरल में भाजपा का ग्राफ लगातार ऊपर जा रहा है.
2021 के विधानसभा चुनावों में 11.40 प्रतिशत वोट शेयर था. 2024 लोकसभा चुनावों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(एनडीए) के साथ मिलकर 19.24 प्रतिशत वोट हासिल किए और त्रिशूर में ऐतिहासिक जीत दर्ज की. तिरुवनंतपुरम में भाजपा 37.12 प्रतिशत वोट के साथ दूसरे स्थान पर रही और सात सीटों पर प्रभावशाली प्रदर्शन किया.
2025 में राजीव चंद्रशेखर के राज्य अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी अब अगले स्तर की राजनीतिक छलांग के लिए तैयार दिखाई देती है.यहीं पर शशि थरूर की भूमिका संभावित है. केरल में युवाओं और महिलाओं के बीच उनका बड़ा असर इतना है. कई स्थानीय राजनीतिक दिग्गजों की तुलना में वह अधिक लोकप्रिय हैं.
अधिकतर कांग्रेस नेताओं के विपरीत, उनका प्रभाव धर्म और वर्ग की सीमाओं से परे है,विशेषकर शहरी मतदाताओं और पहली बार वोट देने वालों में. असम में हिमंता बिस्वा शर्मा ने भाजपा को वैचारिक लचीलापन और प्रशासनिक प्रभावशीलता दी थी. उसी तरह, थरूर केरल में पार्टी को बौद्धिक वैधता, आधुनिक-वैश्विक आकर्षण और विभिन्न समुदायों तक पहुंच दिला सकते हैं.
खासतौर पर ऐसे राज्य में, जहांराजनीतिक रणनीति के साथ सांस्कृतिक संस्कार भी मायने रखते हैं. भाजपा के लिए शशि थरूर का आना सिर्फ एक बड़े चेहरे का पार्टी में शामिल होना नहीं होगा,बल्कि केरल में वह वही बदलाव ला सकते हैं, जैसा असम में हिमंता बिस्वा शर्मा ने किया था.
दिसंबर में होने वाले पंचायत चुनावों से पहले पार्टी को एक ऐसे बड़े चेहरे की तलाश है जो परिदृश्य बदल सके. वर्तमान में भाजपा 65,000 पंचायतों में से केवल 1,550 पर काबिज है. भले ही थरूर और शर्मा की परिस्थितियां पूरी तरह एक जैसी न हों, लेकिन राजनीतिक संभावनाएं इतनी बड़ी हैं कि उन्हें अनदेखा करना मुश्किल है.
नए साल में भाजपा को मिलेगा नया अध्यक्ष!
जब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि बिहार चुनावों के बाद पार्टी अपना नया राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनेगी, तब यह माना जा रहा था कि यह प्रक्रिया साल खत्म होने से पहले पूरी हो जाएगी. लेकिन अब लगता है कि वह डेडलाइन आगे बढ़ गई है. पार्टी अब अपने तरीके से धीमी लेकिन व्यवस्थित गति से यह प्रक्रिया आगे बढ़ा रही है और राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव संभवतः जनवरी 2026 में ही होगा.
29 राज्यों में पार्टी के संगठनात्मक चुनाव पूरे हो चुके हैं. अब सिर्फ उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और दो-तीन अन्य राज्यों की प्रक्रिया बाकी है. उम्मीद है कि अगले चार से छह सप्ताह में ये भी पूरा कर लिए जाएंगे. इसके बाद राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव का रास्ता साफ हो जाएगा. 4 दिसंबर से शुरू होने वाले खरमास की वजह से अध्यक्ष चुनाव की समयसीमा और आगे बढ़ गई है.
इस अवधि में बड़े फैसले या नियुक्तियां नहीं की जातीं. इसलिए पार्टी अब अपना नया अध्यक्ष 14 जनवरी के बाद और बजट सत्र (जनवरी के अंत) से पहले चुनेगी. नए अध्यक्ष के लिए धर्मेंद्र प्रधान, भूपेंद्र यादव, मनोहर लाल खट्टर और शिवराज सिंह चौहान के नाम चल रहे हैं. लेकिन पार्टी में एक राय यह भी बन रही है कि अगर भाजपा दलित वोटरों में और अधिक पैठ बनाना चाहती है,
तो इस बार अध्यक्ष दलित समुदाय से होना चाहिए. इसी वजह से उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को बड़ा दावेदार माना जा रहा है. पार्टी ने अब तक दलित समुदाय से सिर्फ बंगारू लक्ष्मण को ही अध्यक्ष बनाया है. माना जा रहा है कि पार्टी अब फिर से एक दलित नेता को शीर्ष पद पर लाकर बड़ा राजनीतिक संकेत देना चाहती है.
भाजपा-दलित समीकरण
भारतीय जनता पार्टी 2024 के लोकसभा चुनावों में मिले झटके के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक(आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने दलित समुदाय तक पहुंच की जिम्मेदारी स्वयं संभाल ली है. संघ के सूत्रों के अनुसार, पिछले कई महीनों से भागवत इस बात के संकेत दे रहे थे कि एक बार फिर दलितों का भरोसा जीतना जरूरी है और इसके लिए सीधे हस्तक्षेप करना होगा.
हाल ही में संघ प्रमुख ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में पांच दिन बिताए। इस दौरान वे लखीमपुर में कबीर आश्रम भी गए. यहां उन्होंने दलित समाज के प्रतिनिधियों से बंद कमरे में मुलाकात की और स्थानीय नेताओं से भी बातचीत की. इन नेताओं ने पहले भी संघ को कई बार आगाह किया था कि हाशिए पर पड़े समुदायों से पार्टी की दूरी बढ़ रही है, उनमें असंतोष है.
भागवत ने अपने दौरों में स्पष्ट संदेश दिए हैं. वह हिंदू समाज से लगातार आह्वान कर रहे हैं कि वह जातिगत भेदभाव से ऊपर उठे. उन्होंने वाल्मीकि जयंती, रविदास जयंती जैसे त्योहारों को सामूहिक रूप से मनाने की संस्कृति को बढ़ावा दिया है. साथ ही उन्होंने आम तौर पर ऊंची जातियों के वर्चस्व वाले स्थानों जैसे मंदिर, कुएं और श्मशानभूमि आदि पर समावेशिता की बात कही है.
भागवत ने 2024 के अपने वार्षिक विजयदशमी संबोधन में भी जातिगत सीमाओं से परे दोस्ती और सामाजिक एकता पर विशेष जोर दिया था. आरएसएस अपनी संबद्ध इकाई सामाजिक समरसता मंच के माध्यम से कई कार्यक्रम चलाता है. भागवत ने अब आरएसएस के प्रचारकों को स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि दलित बहुल क्षेत्रों में विशेष संपर्क अभियान चलाए और समुदाय के स्थानीय नेताओं से सीधा जुड़ाव बनाएं. संघ उन क्षेत्रों का भी विश्लेषण कर रहा है जहां दलित मतदाताओं की नाराजगी ने भाजपा को सबसे अधिक नुकसान हुआ,
खासकर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में. भागवत की इस पहल को पार्टी एक स्पष्ट संदेश के रूप में देख रही है कि दलित समर्थन को अब स्वाभाविक या स्थायी मानकर नहीं चला जा सकता. 2029 की राह रणनीतिक बदलाव और सुधार की मांग करती है.