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ब्लॉग: पंजाब में हारकर कर भी भाजपा कामयाब! यूपी समेत चार राज्यों में पार्टी की दमदार जीत दे रहे ये संदेश

By राजेश बादल | Published: March 11, 2022 3:14 PM

यूपी में समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव बंगाल में ममता बनर्जी की तरह जुझारूपन नहीं दिखा सके. इस बार भी उन्हें अन्य विपक्षी दलों को साथ में लेना चाहिए था.

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आगामी लोकसभा निर्वाचन से पहले के सबसे महत्वपूर्ण पांच प्रदेशों में विधानसभा के नतीजों से तय हो गया है कि भाजपा एक विजेता के रूप में उभर कर सामने आई है. बंगाल में करारी मात से टूटा उसका मनोबल अब राहत की सांस ले रहा होगा और अगले आम चुनाव से पहले होने जा रहे कुछ और राज्यों के चुनाव में मददगार साबित होगा. पूरब, पश्चिम और उत्तर में पार्टी ने अपना परचम लहराया है और राजनीतिक पंडितों को नए सिरे से परिणाम पढ़ने का अवसर दिया है. 

दूसरी ओर प्रतिपक्ष के लिए यह अपने भीतर झांकने की घड़ी है. उसे समझना होगा कि केवल नकारात्मक मतों के सहारे चुनाव वैतरणी पार नहीं हो सकती.

पहले विजेता की बात. केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा चुनाव से पहले चार प्रदेशों में अपनी सरकार चला रही थी. इसलिए उसके सामने एक तो अपनी सरकारें बचाने की चुनौती थी और दूसरा केंद्र तथा राज्य सरकारों के पांच साल के कामकाज से उपजे नकारात्मक मतों का असर न्यून करना था. दोनों स्थितियों का मुकाबला करने के लिए उसने सिर्फ प्रधानमंत्री के चेहरे को ही सामने रखा. यानी डबल इंजन के स्थान पर सिर्फ एक इंजन की ताकत का जोखिम उसने उठाया. यह कारगर साबित हुआ. 

अन्यथा उत्तर प्रदेश में तो प्रदेश सरकार से राज्य का मतदाता प्रसन्न नहीं था. पंजाब में भाजपा की योजना कामयाब रही. इस सीमांत प्रदेश में वह अपनी सरकार तो बना नहीं सकती थी, लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह से तालमेल और आम आदमी पार्टी को परदे के पीछे से उसका समर्थन काम आया. उसका मकसद राष्ट्रीय स्तर पर उसकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस को कमजोर करना था और वह उसने कर दिया. 

बाकी तीन प्रदेशों में विपक्ष कोई मजबूत दावेदारी नहीं रख सका था. सिवाय उत्तराखंड के, जहां कांग्रेस ने अपने प्रदर्शन में काफी सुधार किया है. जहां तक प्रतिपक्ष के संघर्ष का सवाल है, तो उत्तर प्रदेश में उसका अति आत्मविश्वास घातक बन गया. 

समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव बंगाल में ममता बनर्जी की तरह जुझारूपन नहीं दिखा सके. हो सकता है कि इसके पीछे बंगाल में ममता बनर्जी का सत्ता में होना रहा हो. इसके अलावा सपा के पिछले कार्यकाल की कड़वी यादें मतदाताओं के मन में बनी रहीं. सियासत में अक्सर अतीत का प्रेत वर्तमान में भी मंडराता रहता है. अखिलेश भी उसका शिकार बन गए. भले ही उनके पुराने समझौते परिणाम नहीं दे पाए मगर इस बार भी उन्हें अन्य विपक्षी दलों को साथ में लेना था. 

पंजाब में अकाली दल इस बार भी कोई चमत्कार नहीं दिखा सका. अलबत्ता दिल्ली से आए एक नवोदित क्षेत्रीय दल ने बाजी मार ली. अन्य तीन प्रदेशों में भी कांग्रेस ही मुख्य विपक्ष थी और कहने में हिचक नहीं कि इन राज्यों में कांग्रेस ने चुनाव को गंभीरता से नहीं लिया. उसकी लड़ने की जुझारू क्षमता कहीं विलुप्त हो गई है. तो अब इन पांच प्रदेशों में विधानसभा चुनाव के परिणाम आने वाले दिनों के क्या सियासी संकेत देते हैं? 

लोकसभा के अगले चुनाव से पहले दस राज्यों में इस बरस और अगले साल  विधानसभा चुनाव होने हैं. सत्तारूढ़ पार्टी अपने विजयी चेहरे के साथ उनमें प्रस्तुत होगी जबकि विपक्ष पराजित और एक तरह से हताश मुद्रा में सामने होगा. उसे ध्यान देना होगा कि अब भाजपा जैसी हाईटेक प्रचार संसाधनों से युक्त पार्टी से उसका मुकाबला है, जो पूरे साल चुनावी मुद्रा में रहती है. 

गुजरात और हिमाचल में इस साल और मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में अगले बरस चुनाव होंगे. यानी पूरब, पश्चिम, मध्य और दक्षिण भारत में होने वाले यह चुनाव विपक्ष के लिए लिटमस टेस्ट होंगे.

स्वस्थ लोकतंत्र की सेहत पक्ष के साथ-साथ विपक्ष के भी तंदुरुस्त होने पर निर्भर करती है. ऐसे में प्रतिपक्ष को अपनी दुर्बल काया को दूर करने का उपाय ढूंढ़ना ही चाहिए.

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