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ब्लॉग: महाराष्ट्र की राजनीति के महत्वाकांक्षी भतीजे....अजित पवार से राज ठाकरे और धनंजय मुंडे तक

By Amitabh Shrivastava | Published: April 28, 2023 7:16 AM

राकांपा के मुखिया शरद पवार के भतीजे अजित पवार, पूर्व शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे, पूर्व उपमुख्यमंत्री गोपीनाथ मुंडे के भतीजे धनंजय मुंडे और पूर्व उपमुख्यमंत्री छगन भुजबल के भतीजे समीर भुजबल पहली पंक्ति में आकर मुकाबला करते हैं.

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भारतीय समाज में चाचा-भतीजे का रिश्ता निराला है, जिसके अनेक उदाहरण सहज ही मिल जाते हैं. मगर जब बात राजनीति की हो तो कुछ अलग ही हो जाती है. कब चाचा अपने भतीजे को संभालेगा और कब उसे छोड़ कर आगे निकल जाएगा, कहा नहीं जा सकता. भतीजों का भी मिलता-जुलता हाल है. महाराष्ट्र की राजनीति में भतीजे हमेशा ही अग्रिम पंक्ति में रहे और अनेक अवसरों पर उन्होंने चाचा को पीछे छोड़ने में कसर नहीं छोड़ी. ताजा उदाहरण राज्य के पूर्व उपमुख्यमंत्री अजित पवार के रूप में सामने है.

महाराष्ट्र की राजनीति में यूं तो अनेक भतीजे और उनके चाचा छिटपुट स्तर पर हलचल करते रहते हैं, किंतु राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार के भतीजे अजित पवार, पूर्व शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे, पूर्व उपमुख्यमंत्री गोपीनाथ मुंडे के भतीजे धनंजय मुंडे और पूर्व उपमुख्यमंत्री छगन भुजबल के भतीजे समीर भुजबल पहली पंक्ति में आकर मुकाबला करते हैं. 

हालांकि चुनाव हारने और भ्रष्टाचार के आरोपों में गिरफ्तारी के बाद भुजबल ने सक्रियता कम रखी है, लेकिन बाकी तीन अपनी महत्वाकांक्षा की उड़ान भरते ही रहते हैं. अजित पवार और राज ठाकरे बार-बार मुख्यमंत्री बनने का अपना सपना दोहराते रहते हैं. कोई स्पष्ट बोलता है तो कोई एक बार राज्य की डोर अपने हाथों में मांगता है.

राजनीति में महत्वाकांक्षा को पालना गलत नहीं माना जा सकता है. उसके साथ संगठनात्मक ताकत, चुनावी विजय का ग्राफ जैसी बातें भी मायने रखती हैं. बीते विधानसभा चुनाव के बाद अजित पवार के राजनीतिक जीवन में दो उतार-चढ़ाव आए. एक जब वह सुबह-सुबह उपमुख्यमंत्री बने और दूसरा जब वह उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में चौथी बार राकांपा के उपमुख्यमंत्री बन गए. जब वह सुबह उपमुख्यमंत्री बने तब उनके पास समर्थक विधायकों को दिखाने की आभासी कतार थी, जो वास्तविकता में नहीं बदल सकी. 

दूसरी बार उपमुख्यमंत्री बने तो चाचा की पार्टी की तरफ से बन पाए. इसके पहले भी चाचा की पार्टी से पद पाने की स्थितियां रहीं. उधर, चाचा से अलग होकर नई पार्टी बनाने वाले राज ठाकरे अपने भाषणों से भीड़ तो इकट्ठी करते रहे, लेकिन उनकी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना 13 विधायकों से शून्य पर आ गई है. एक महानगर पालिका मिली थी, वह भी हाथ से चली गई. कुल जमा चुनावों में वोट काटने की जिम्मेदारी बची, जिसकी धार भी अब भोथरी होती जा रही है. 

तीसरे भतीजे धनंजय मुंडे अपने चाचा के जिले बीड़ तक ही सीमित रह गए. उन्हें पारिवारिक मामलों से फुर्सत नहीं मिल रही है. कभी चचेरी बहनों को चुनौती देते हैं तो कभी अपने निजी मामलों में ही उलझ कर रह जाते हैं. हालांकि राकांपा में उन्हें लाने वाले शरद पवार उनका हमेशा ख्याल रखते हैं. सरकार बनने पर अवश्य ही उन्हें मंत्री बना देते हैं. साथ ही उनकी चुनावी लड़ाई को कभी कमजोर नहीं होने देते हैं. हालांकि जब धनंजय मुंडे अपने चाचा गोपीनाथ मुंडे की भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) से अलग हुए थे तो यह अपेक्षा की जा रही थी, वह पार्टी का नुकसान करने में कुछ समर्थ होंगे. किंतु वह अपनी सत्ता की सीमा तक ही सिमट कर रह गए.

यदि राजनीतिक ताकत को व्यक्तिगत स्तर तक भी देखा जाए तो पिछले विधानसभा चुनाव में अजित पवार अपने पुत्र पार्थ को ही जिताने में असमर्थ रहे. पुणे जिले की कुछ सीटों को छोड़ कहीं भी अपने दम पर सीटें जीत कर लाने में वह कभी सक्षम नहीं पाए गए, जो साफ करता है कि उनकी गाड़ी अपने चाचा के साथ तालमेल और सहयोग से बढ़ती है. किंतु दोनों की ताकत भी 288 सदस्यीय विधानसभा के चुनाव में पचास का आंकड़ा पार कर पाती है. 

ऐसे में अजित पवार की चाचा के बगैर नैया कैसे पार लगेगी, यह समझना मुश्किल है. राज ठाकरे लगातार कभी खुद पर, कभी पार्टी पर प्रयोग करते जा रहे हैं. हालांकि पोस्टर, झंडा सब बदल कर भी कोई सुधार दिखाई नहीं दे रहा है. बीड़ जिले तक सीमित धनंजय मुंडे अपने कुनबे का नुकसान कर सकते हैं और उन्होंने किया भी है, मगर मराठवाड़ा में अपनी ताकत का अहसास करा कर राकांपा को एक नई ऊंचाई दे पाना उनके बस की बात नहीं है. पार्टी में आकांक्षा रखना और उसे पूरा करवा पाना अलग हो सकता है, लेकिन जनता के बीच जाकर अपनी स्वतंत्र छवि बना पाना मुश्किल ही होता है.

कुछ राजनीतिक सीमाओं का अनुमान होने के कारण ही अतीत में भी तीनों भतीजों की महत्वाकांक्षाओं को पंख लगने का अवसर नहीं मिला और भविष्य में भी यही स्थितियां बन रही हैं. बनी-बनाई पार्टी और विधायक दल को तोड़ना आसान हो सकता है, लेकिन अपनी पार्टी और विधायक दल को खड़ा कर पाना इतना आसान नहीं होता, जितना ये भतीजे मानते हैं. इतिहास गवाह है कि राज्य में शिवसेना, कांग्रेस और राकांपा तीनों दलों से टूट के बाद उभरा कोई भी नेता बड़ा होकर सामने नहीं आ सका. सभी को किसी न किसी दल में शामिल होकर अपनी आकांक्षा-महत्वाकांक्षा को पूरा करना पड़ा. 

अवश्य ही महाराष्ट्र में पिछले कई दशक से किसी दल विशेष को बहुमत न मिलने से दूसरे दल के समर्थन-गठबंधन की जरूरत पड़ती है. ऐसे में महत्वाकांक्षी नेताओं में उम्मीदें उड़ान भरने लगती हैं, किंतु उसमें क्षमता और संभावना को अधिक महत्व नहीं दिया जाता है. ऐसे में एक बार की खुशी बार-बार की खुशियों में बदल नहीं पाती है. इन दिनों अजित पवार पूरी तरह से अपने तेवर दिखा रहे हैं. कभी यही स्थिति राज ठाकरे की थी. धनंजय मुंडे और समीर भुजबल दोनों को मजबूरियों ने समेट दिया है. 

आगे क्या होगा यह नहीं कहा जा सकता, लेकिन जनाधार के बिना कोई भी कदम ज्यादा दिन चल नहीं पाता है. यह लोकतंत्र की सच्चाई है और जिसे उनके चाचाओं ने अपनी पार्टी को चलाने के दौरान अच्छे से समझा है. किंतु उनका दुर्भाग्य ही है कि वे इसे अपने भतीजों को समझा नहीं पाए हैं.

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