Ahmedabad Congress meeting: अहमदाबाद में कांग्रेस की बैठक में राहुल गांधी नब्बे-दस का नया सियासी गणित लेकर आए हैं. यह योगी आदित्यनाथ के अस्सी-बीस के फार्मूला का तोड़ माना जा रहा है. इसे पूरी भाजपा अपना चुकी है और कई राज्यों में विधानसभा चुनाव जीत चुकी है. अस्सी-बीस का विस्तार एक हैं तो सेफ हैं और बंटेंगे तो कटेंगे के नारे हैं. तो क्या अब मान कर चला जाए कि राहुल गांधी इसी तर्ज पर कोई नया नारा भी गढ़ने वाले हैं या जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उसकी उतनी भागीदारी का नारा ही नब्बे-दस फार्मूले को आगे बढ़ाएगा.
आसान शब्दों में समझते हैं कि राहुल गांधी का नब्बे-दस का फार्मूला क्या है. भाजपा जब अस्सी-बीस की बात करती है तो वह अस्सी फीसदी हिंदुओं और बीस फीसदी मुस्लिमों को ध्यान में रखती है. भाजपा साफ-साफ संकेत देती है कि उसे अस्सी फीसदी हिंदुओं की चिंता है. भाजपा के हिंदुत्व में दलित, सवर्ण, आदिवासी, ओबीसी सब आते हैं.
भाजपा किसी मुस्लिम को विधानसभा या लोकसभा का टिकट नहीं देती. किसी को मंत्री नहीं बनाती है और साफ-साफ कहती है कि उसे मुस्लिम वोट की जरूरत नहीं है. ऐसा करके भाजपा अस्सी फीसदी को एक साथ अपने साथ रखने की मंशा रखती है. उसे लगता है कि अगर अस्सी फीसदी में से साठ फीसदी उसके साथ आ जाए तो वह कोई चुनाव हार ही नहीं सकती.
लेकिन यहां पेंच है. अस्सी फीसदी में लगभग आधा या उससे थोड़ा ज्यादा ही भाजपा को वोट देता है. बाकी का हिस्सा कांग्रेस या विपक्षी दलों के पास जाता है. एक तरह से कहा जाए तो हर दूसरा हिंदू भाजपा को वोट नहीं करता. इसके बावजूद भाजपा चुनाव इसलिए भी जीतती है कि वह बाकी की भरपाई बेहतर बूथ मैनेजमेंट के जरिए कर लेती है.
राहुल गांधी इसी बिंदु से अपना फार्मूला ईजाद कर रहे हैं. राहुल का मानना है कि अस्सी-बीस का उदाहरण तथ्यों से परे है क्योंकि देश में ओबीसी, दलित व आदिवासी और अल्पसंख्यक मिलाकर कुल नब्बे फीसदी हैं. बाकी का दस फीसदी सवर्ण हैं. राहुल चाहते हैं कि ओबीसी हिंदू होते हुए भी खुद को ओबीसी के रूप में ही देखे क्योंकि उसकी पहचान ओबीसी के रूप में है.
इसी तरह दलित खुद काे दलित माने, आदिवासी खुद को आदिवासी समझे क्योंकि यही उसकी पहचान है. राहुल गांधी को लगता है कि अगर दलित दलित की तरह वोट करेगा, हिंदू बनकर नहीं करेगा तो भाजपा को दलित वोट मिलना कम हो जाएगा. यही बात ओबीसी और आदिवासी के लिए कही जा सकती है.
राहुल गांधी की नजर खासतौर से ओबीसी पर है जिसमें राज्य विशेष में प्रभावशाली जातियां आती हैं जो दलितों, आदिवासियों के मुकाबले संपन्न हैं. राहुल गांधी इस वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए नब्बे-दस की बात कर रहे हैं. यह बात कहना जितना आसान है उसे जमीन पर उतारना उतना ही मुश्किल है. आखिर संघ ने दशकों तक आदिवासी इलाकों में वनवासी कल्याण आश्रम के तहत सघन काम किया और आदिवासियों को भाजपा का विकल्प सुझाया. इसी तरह दलित बस्तियों में संघ के कार्यकर्ता लंबे समय तक जाते रहे और दलितों को भाजपा से जोड़ा गया.
अब संघ और भाजपा इनमें से ज्यादातर को हिंदुत्व की छतरी के नीचे लाना चाहते हैं. राहुल गांधी इस खतरे को समझ रहे हैं. एक वक्त में क्या दलित, क्या आदिवासी, क्या ओबीसी और क्या अल्पसंख्यक सभी कांग्रेस का वोट बैंक हुआ करते थे. कालांतर में कहीं सपा, कहीं बसपा, कहीं लालू-नीतीश ने सामाजिक न्याय के नाम पर सेंधमारी की तो बाकी की कसर कांग्रेस छोड़ कर गए शरद पवार और ममता बनर्जी ने पूरी कर दी. उधर भाजपा ने ओबीसी प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर ओबीसी में सेंधमारी करने में कामयाबी हासिल की.
कांग्रेस बहुत पीछे छूट गई और अब राहुल गांधी अपने रेस के घोड़ों के दम पर इस दूरी को पाटना चाहते हैं. ओबीसी एक बहुत बड़ा वोट बैंक है. राहुल गांधी को लगता है कि 2025 में सामाजिक न्याय का मतलब जातीय जनगणना है. एक बार किसकी कितनी संख्या है यह तय हो जाए तो आगे इस अनुपात में योजनाएं बनाई जा सकती हैं.
राहुल को लगता है कि जातीय जनगणना के हिसाब से आरक्षण नए सिरे से तय होना चाहिए जो जाहिर है 50 फीसदी की लक्ष्मण रेखा पार कर ही जाएगा. अहमदाबाद में राहुल गांधी ने अपनी बात को समझाने के लिए तेलंगाना राज्य की जातीय जनगणना को सामने रखा. कहा कि तेलंगाना में ओबीसी, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक की आबादी नब्बे फीसदी है और बाकी के सवर्ण हैं.
हालांकि मजेदार बात है कि वहां के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी बाकी के दस फीसदी में आते हैं. खैर, राहुल का कहना था कि तेलंगाना में कॉर्पोरेट जगत में इस नब्बे फीसदी का एक फीसदी भी नहीं है. इसका एक समाधान रेवंत रेड्डी ने ओबीसी का आरक्षण बढ़ाकर 42 फीसदी करके सामने रखा है. राहुल गांधी तेलंगाना जैसी जातीय जनगणना पूरे देश में लागू करना चाहते हैं.
अब लोकसभा चुनाव तो 2029 में होंगे लेकिन राहुल चाहते हैं कि जहां-जहां कांग्रेस की राज्य सरकार है वहां-वहां इस तरह की जातीय जनगणना करवाई जाए ताकि जनता में यकीन पैदा किया जा सके. इसलिए भी राहुल गांधी अपने नब्बे-दस फार्मूले को विधानसभा चुनावों में आजमाना चाहते हैं. हालांकि राहुल गांधी विचारधारा बनाम विचारधारा की लड़ाई लड़ रहे हैं जिसके लाभ तत्काल नहीं मिल सकते,
लंबे संघर्ष की जरूरत होगी. लेकिन कांग्रेस गंभीर नजर नहीं आती. ताजा उदाहरण राजस्थान के अलवर जिले का है. विपक्ष के नेता टीकाराम जूली दलित नेता हैं. वह रामनवमी पर मंदिर जाते हैं. उनके वहां से निकलते ही भाजपा के दो बार विधायक रह चुके ज्ञानदेव आहूजा पहुंच जाते हैं. गंगाजल का छिड़काव करते हैं. कहते हैं कि जूली के मंदिर आने से सब कुछ अपवित्र हो गया.
इसे एक बहुत बड़ा मुद्दा बनाया जा सकता था. लेकिन कांग्रेस चूक गई. अहमदाबाद बैठक में खड़गे से लेकर राहुल गांधी को यह मसला सामने रखना पड़ा.नब्बे बनाम दस की लड़ाई के लिए अति पिछड़ों और महादलितों के साथ खड़ा होना जरूरी है. पिछड़ों में अगड़े और दलितों में अगड़े दलितों ने अपने-अपने सियासी ठिकाने तलाश लिए हैं.
इनके प्रभावशाली नेता भी सामने हैं और यह वर्ग सामूहिक रूप से वोट देने में यकीन रखता है लेकिन अति पिछड़ों और महादलितों को अभी भी नेता का इंतजार है. यहां राहुल गांधी सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का सहारा भी ले सकते हैं जिसमें कोर्ट ने दलितों और आदिवासियों के आरक्षण में कोटा में कोटा देने को ही ठहराया था.
कोर्ट का कहना था कि राज्य सरकारें चाहें तो अपने स्तर पर ऐसा कुछ कर सकती हैं. लेकिन कांग्रेस की किसी भी राज्य सरकार ने इस तरफ देखा तक नहीं है. हरियाणा में भाजपा सरकार ने दलितों के आरक्षण में कोटा में कोटा तय किया है. राहुल गांधी अगर नब्बे-दस चाहते हैं तो इस दिशा में पहल कर सकते हैं.
कुल मिलाकर कहानी यह है कि पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को करीब 22 फीसदी वोट मिला , 99 सीटें मिलीं. करीब 14 करोड़ वोटर ने कांग्रेस का साथ दिया. भाजपा को 24 करोड़ वोट मिला, 240 सीटें मिलीं. करीब 37 फीसदी वोट मिला. कांग्रेस 14 करोड़ वोट से खुश हो सकती है लेकिन सत्ता में नहीं आ सकती. कांग्रेस को कम-से-कम तीन-चार करोड़ वोट बढ़ाना होगा. क्या नब्बे-दस फार्मूला इस गणित को सुलझा पाएगा?