हेमधर शर्मा
पूर्व मंत्री से अपने बकाया पैसों की मांग को लेकर एक ‘स्कूल स्वच्छता दूत’ और यूट्यूबर रोहित आर्य ने मुंबई के पवई इलाके में पिछले दिनों 17 बच्चों समेत 20 लोगों को बंधक बना लिया और पुलिस की कार्रवाई में आखिरकार मारा गया. किसानों की कर्जमाफी को लेकर एक पूर्व मंत्री ने नागपुर के पास एक नेशनल हाइवे को 30 घंटे तक जाम रखा और हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद आखिरकार हजारों वाहनों और लोगों को राहत मिली.
रोहित आर्य का कहना था कि उसे महाराष्ट्र के पूर्व शिक्षा मंत्री दीपक केसकर के कार्यकाल के दौरान शिक्षा विभाग से स्कूल का टेंडर मिला था, जिसका भुगतान अभी तक नहीं मिला है. इसको लेकर पिछले साल वह तीन बार अनशन भी कर चुका था. रोहित का आरोप था कि उसे ‘मेरी पाठशाला, सुंदर पाठशाला’ अभियान की जिम्मेदारी मिली थी और यह अभियान सफल भी रहा.
लेकिन उसके द्वारा यह खुलासा किए जाने के कारण कि ‘इस अभियान में राज्य के कुछ नेताओं के स्कूलों को गलत अंक दिए गए और जानबूझकर उन्हीं स्कूलों को विजेता के रूप में चुना गया’, उसका बकाया रोक दिया गया था. नतीजतन उसने बच्चों को बंधक बना लिया (हालांकि पूर्व मंत्री का कहना है कि उसे कुछ भुगतान किया गया था).‘स्कूल स्वच्छता दूत’ रोहित आर्य के साथ ‘नाइंसाफी’ से किसी को भी सहानुभूति हो सकती है.
अगर उसने सौंपी गई जिम्मेदारी को सफलता से पूरा किया था तो जाहिर है कि उसे पैसों का पूरा भुगतान भी कर दिया जाना चाहिए था. लालफीताशाही इतनी बदनाम हो चुकी है कि नेताओं की खोखली सफाई पर अब किसी को भी विश्वास नहीं होता है. लेकिन रोहित ने किया क्या? बच्चों को बंधक बनाकर उसने अपने प्रति लोगों की सारी सहानुभूति गंवा दी. वह भले ही खुद के आतंकी नहीं होने का दावा करता रहा हो लेकिन काम तो उसका आतंकवादियों जैसा ही था!
देश में किसानों की दुर्दशा आज किसी से छिपी नहीं है. दूसरों का पेट भरने वाला अन्नदाता खुद अपना और अपने परिवार का पेट भरने में असफल रहता है. यह दुर्भाग्य ही है कि उसे राहत देने का कोई स्थायी उपाय अभी तक खोजा नहीं जा सका है और बार-बार कर्जमाफी के लिए आंदोलन करना पड़ता है. किसानों से आम जनता की कोई दुश्मनी नहीं है बल्कि हर कोई चाहता है कि उन्हें राहत मिले. लेकिन राष्ट्रीय राजमार्ग पर तीस घंटों के चक्काजाम से जिन लोगों को मुश्किलें उठानी पड़ीं, किसानों के प्रति उनकी सहानुभूति में क्या कोई कमी नहीं आई होगी?
तो फिर स्वच्छता दूत रोहित आर्य या कर्जग्रस्त किसान क्या चुप बैठ जाएं? अगर नहीं, तो अपना विरोध कैसे व्यक्त करें?पराधीन भारत में यही सवाल गांधीजी के सामने भी था. इसीलिए ‘सत्याग्रह’ के रूप में उन्होंने प्रतिरोध का एक सुंदर तरीका खोज निकाला था. उनके अनशन-आंदोलन दूसरों के बजाय खुद को कष्ट पहुंचाने वाले होते थे और इसका परिणाम भी अद्भुत निकलता था. यहां तक कि जिन अंग्रेजों के खिलाफ गांधीजी लड़ते थे, बाद में वे ही उनके मित्र बन जाते थे.
जिस जनरल स्मट्स से वे दक्षिण अफ्रीका में 21 वर्षों तक लड़े, उसके साथ उनका आजीवन पत्र-व्यवहार चलता रहा था तो सिर्फ इसीलिए क्योंकि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए भी गांधीजी उनका अहित नहीं चाहते थे. सत्याग्रह सिर्फ उसी का हृदय परिवर्तन नहीं करता जिसके खिलाफ प्रयोग किया जाता है बल्कि प्रयोगकर्ता को भी एक बेहतरीन इंसान बनाता है.
सत्याग्रह की सफलता की अनिवार्य शर्त ही यही है कि जिससे आप लड़ रहे हैं, उसके प्रति मन में कोई दुर्भावना न रखें. विरोधी की भी भलाई की भावना अगर हमारे मन में हो तो क्या हम उसे नुकसान पहुंचाने की कोशिश करेंगे? लेकिन गांधीजी जिस हथियार से विदेशी शासकों के खिलाफ लड़े, दुर्भाग्य से आज हम अपने शासकों के खिलाफ उससे लड़ नहीं पा रहे हैं और तोड़फोड़, उत्पात मचाकर, काम रोक कर प्रकारांतर से अपना ही नुकसान करते हैं (जापानियों का आंदोलन इसीलिए लंबा नहीं खिंचता क्योंकि वे इसका उल्टा-अर्थात काम ज्यादा-करते हैं).
इससे भी बड़ा खतरा यह है कि लड़ाई अगर निर्दयतापूर्वक लड़ी जाए तो पराये तो दूर, सगे भाइयों के भी एक-दूसरे का जानी दुश्मन बनते देर नहीं लगती. एक ऐसे देश में, विविधता ही जिसकी विशेषता है और कदम-कदम पर एक-दूसरे के हित टकराते हैं, आंदोलन अगर गैरजिम्मेदाराना ढंग से किए जाएंगे तो समाज में क्या द्वेष भाव नहीं बढ़ता जाएगा? और इसे रोकने के लिए अगर हम सुरक्षा बलों पर अपनी निर्भरता बढ़ाते जाएंगे तो लोकतंत्र का क्या होगा?