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मुजफ्फरपुर और देवरिया तो नमूने भर हैं, हर साल गायब हो जाती हैं 30 हजार से ज्यादा बेटियाँ

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: August 8, 2018 18:40 IST

यह बात भी सरकारी रिकार्ड में दर्ज है कि भारत में कोई 900 संगठित गिरोह, जिनके सदस्यों की संख्या 5 हजार के आसपास है, बच्चे चुराने के काम में नियोजित रूप से सक्रिय हैं।

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(पंकज चतुर्वेदी)

पहले मुजफ्फरपुर और अब देवरिया, समाज से उपेक्षित बच्चियों को जहां निरापद आसरे की उम्मीद थी, वहीं उनकी देह नोंची जा रही थी। कुछ साल पहले ऐसा एक नृशंस प्रकरण कांकेर में भी सामने आया था। यह घटनाएं विचार करने पर मजबूर करती हैं कि क्या वास्तव में हमारे देश में छोटी बच्चियों को आस्था के चलते पूजा जाता रहा है या फिर हमारे आदि समाज ने बच्चियों को हमारी मूल पाशविक प्रवृत्ति से बचा कर रखने के लिए यह परंपरा बना दी थी!

भारत सरकार के राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो के आंकड़े गवाह हैं कि देश में हर साल औसतन 90 हजार बच्चों के गुम होने की रपट थानों तक पहुंचती है, जिनमें से 30 हजार से ज्यादा का पता नहीं लग पाता। हाल ही में संसद में पेश एक आंकड़े के मुताबिक सिर्फ 2011 से 2014 के बीच सवा तीन लाख बच्चे लापता हो गए।

जब भी इतने बड़े पैमाने पर बच्चों के गुम होने के तथ्य आते हैं तो सरकारी तंत्र रटे-रटाए औपचारिक स्पष्टीकरणों और समस्या के समाधान के लिए नए उपाय करने की बातों से आगे कुछ नहीं कर पाता। 

भारत में सबसे ज्यादा बच्चे महाराष्ट्र में गुम होते हैं। यहां 2011-14 के बीच 50,947 बच्चों के नदारद हो जाने की खबर पुलिस थानों तक पहुंची। फिर मध्य प्रदेश से 24,836, दिल्ली से 19,948 और आंध्र प्रदेश से 18,540 बच्चों के अचानक लापता होने की सूचना है। विडंबना है कि गुम हुए बच्चों में बेटियों की संख्या सबसे ज्यादा होती है। 

सन् 2011 में गुम हुए कुल 90,654 बच्चों में से 53,683 लड़कियां थीं, सन 2012 में कुल गुमशुदा 65,038 में से 39,336 बच्चियां, 2013 में कुल 1,35,262 में से 68,869 बच्चियां और सन 2014 में कुल 36,704 गुमशुदा बच्चों में से 17,944 बच्चियां थीं। 

यह बात भी सरकारी रिकार्ड में दर्ज है कि भारत में कोई 900 संगठित गिरोह, जिनके सदस्यों की संख्या 5 हजार के आसपास है, बच्चे चुराने के काम में नियोजित रूप से सक्रिय हैं। लापता बच्चों से संबंधित आंकड़ों की एक हकीकत यह भी है कि राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो सिर्फ अपहरण किए गए बच्चों की गिनती बताता है। जबकि ज्यादातर मामलों में पुलिस प्राथमिकी दर्ज करने से इनकार कर देती है या टालमटोल करती है।

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