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Lothal History: सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों ने बनाया था दुनिया का सबसे प्राचीन ज्ञात बंदरगाह

By मेघना सचदेवा | Published: July 27, 2022 2:14 PM

लोथल लगभग प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता के शहरों में से एक बहुत ही महत्वपूर्ण बंदरगाह शहर है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इस शहर की खुदाई 13 फ़रवरी 1955 से लेकर 19 मई 1956 के बीच की थी। लोथल को मिनी हड़प्पा भी कहा गया है। यहां बने सबसे पुराने बंदरगाह के बारे में कुछ दिलचस्प बातें सामने आई हैं।

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ठळक मुद्देलोथल की खोज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किया गया था | लोथल के पूर्वी छोर पर नीचे वाले भाग में जहाज़ों को ठहराने के लिए आर्टिफिशियल बंदरगाह जैसी रेक्टेंगुलर इमारत के अवशेष मिले हैं।राखीगढ़ी के बारे में 1963 में पुरातत्वविदों का निष्कर्ष यह था कि सिंधु सभ्यता के शेष शहरों में यह एक विशाल नगरीय सभ्यता का सुबूत है।

4500 साल पहले बने बंदरगाह की एक एसी कहानी आपको हम आज बताने वाले हैं जिसके बारे में जानकर आप चौंक जाऐंगे। ये सिर्फ एक बंदरगाह की कहानी नहीं है बल्कि प्राचीन सिंधु घाटी सभ्यता के शहरों में से एक बहुत ही महत्वपूर्ण बंदरगाह शहर के बसने और उजड़ने की कहानी है। पुणे स्थिति भण्डारकर प्राच्य शोध संस्थान ने एक रिपोर्ट के जरीए सालों पुराने बने सबसे पहले बंदरगाह और बंदरगाह शहर में मानव सरलता वहां होने वाले अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और जलवायु परिवर्तन,आपदा के प्रभाव के बारे में कई दिलचस्प बातें साझा की है। आईए जानते हैं लोथल के प्राचीन बंदरगाह के बारे में।

4500 साल पहले और दुनिया के सबसे पुराने बंदरगाह की कहानी

पुणे स्थिति भण्डारकर प्राच्य शोध संस्थान के अनुसार ये लगभग 6000 साल पुरानी बात है,जब नवजात सभ्यता की शुरुआत हुई। सिंधु और सरस्वती नदी के किनारे बस रही ये सभ्यता 2000 सालों तक आस पास के क्षेत्रों में फैलती चली गई। धीरे धीरे ये सभ्यता हड़प्पा और मोहनजोदड़ो,राखीगड़ी और वर्तमान में बसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर गुजरात के धोलावीरा तक फैल गई। लोथल शहर और धोलावीरा इस सभ्यता के सबसे दक्षिण हिस्से थे।

लोथल में कैसे शुरू हुआ व्यापार ?

लोथल गोदी जो कि विश्व की प्राचीनतम ज्ञात गोदी है, सिंध में हड़प्पा के शहरों और सौराष्ट्र प्रायद्वीप के बीच बहने वाली साबरमती नदी की प्राचीन धारा के द्वारा शहर से जुड़ी थी । ये इन स्थानों के बीच एक व्यापार मार्ग था। उस वक्त वहां व्यापार की अपार संभावनाऐं थी जो उस क्षेत्र की प्रगती के तौर पर देखी जा रही थी। प्राचीन समय में यह एक महत्वपूर्ण और संपन्न व्यापार केंद्र था जहाँ पश्चिम एशिया और अफ्रीका के सुदूर कोनों तक व्यापार होता था।

गौरतलब है कि हिंद महासागर व्यापार को दूर दराज़ के शहरों तक पहुंचाने के लिए उस वक्त बहुत बड़ा पुल बन सकता था। हिंद महासागर भारतीय मेसोपोटामिया और प्राचीन मिस्र सभ्यता से जुड़े शहरों के एक लिंक बन गया था। इससे व्यापार को और इन शहरों तक पंहुचाया जा सकता था। लोथल सभ्यता के लोगों ने इसका फायदा भी उठाया। 

नर्मदा घाटी के खूबसूरत मनका, रूई और हाथी दांत जैसे कई सामानों को लोगों ने बाहर बेचना शुरू कर दिया। बदले में उन्हे कई तरह के धातु और ऊन जैसे सामान मिलने लगे। जानकारी के मुताबिक 2450 ईसा पूर्व से 2350 ईसा पूर्व के बीच वहां एक छोटी बंदरगाह थी। बंदरगाह में कुछ नाव रूक सकती थी।

कई बार उजड़े लोथल को लोगों ने कैसे बसाया

लोथल के लिए सबसे बड़ी परेशानी थी हर थोड़े दिनों में आने वाला पानी सैलाब । कुछ सालों के बाद बार बार वहां पर आई बाढ़ ने लोथल को कई बार उजाड़ा। 2350 ईसा पूर्व का वक्त लोथल के लिए काफी खराब रहा और इस दौरान आई बाढ़ ने शहर को बड़ा झटका दिया। उस वक्त भी लोथल के लोगों ने हार न मानी और आपदा में अवसर खोजा।

इस बार उन्होंने फिर से लोथल को बसाने की सोची वो भी नए और  बेहतर बंदरगाह के साथ जो कि ज्यादा नावों को जगह दे सके। उस वक्त इंजीनियरों ने एक नए बंदरगाह का निमार्ण शुरू किया लेकिन पानी से कुछ दूरी पर, ताकी तूफान से बचने के लिए बड़े जहाज वहां शरण ले सकें। निर्माण करते वक्त ये भी ध्यान रखा गया कि तूफान के वक्त में इस बंदरगाह में कोई दिक्कत न आए। पानी का बहाव कितना हो सकता है इसका भी ध्यान रखा गया।

भण्डारकर प्राच्य शोध संस्थान ने पुरातत्वविद एस आर राव की खोज का जिक्र करते हुए बताया कि कैसे प्राचीन भारत और आज के बंदरगाह कितने अलग थे। आज के मुंबई और विशाखापटनम के बंदरगाह से भी उसकी तुलना की जाती है। इसके बाद इस बंदरगाह ने लोथल की तस्वीर बदल दी और लगभग 350 सालों तक लोथल एक खुशहाल शहर रहा। 2000 ईसा पूर्व एक तूफान आया। बाढ़ की वजह से भी बंदरगाह को काफी नुकसान पंहुचा।

थोड़ी बहुत मरम्मत कर ली गई। हालांकि बाढ़ के चलते नदी का रूख बदल गया, जहाज अब बंदरगाह पर नहीं आ पा रहे थे। लेकिन लोगों ने हार न मानी और दोबारा बंदरगाह के पास एक सुरंग बनाना शुरू की ताकि जहाज महासागर से बंदरगाह तक आ सके। लेकिन बड़े जहाज अब भी बंदरगाह तक नहीं आ पाए।

इस सबका नतीजा ये रहा कि वहां व्यापार कम हो या और लगातार आ रही बाढ़ ने बार बार शहर को उजाड़ा। जिसकी वजह से धीरे धीरे सब खत्म होता चला गया।

कैसे हुई लोथल की खोज ?

लोथल की खोज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किया गया था | ये शहर अहमदाबाद जिले के धोलका तालुका के गाँव सरागवाला के पास स्थित है। इनमे पुरातत्वविद एस.आर. राव की अगुवाई में कई टीमों ने मिलकर लोथल की खोज की | 13 फरवरी, 1955 से 19 मई, 1960 तक लोथल की खुदाई की।आज अगर आप लोथल की स्थिति देखे तो वह किसी परित्यक्त नगर की भांति नज़र आता है, जहाँ पर अब सिर्फ टूटी-फूटी नींवें ही बची हैं, जो उसके गौरवपूर्ण अतीत की कहानियाँ बयान करती हैं। जब इसकी खोज की गई थी तब इसे लघु हड़प्पा या लघु मोहनजोदड़ो कहा गया। खुदाई के दौरान जो कुछ खोजकर्ता को समझ आया उससे आंकलन लगाया गया कि लोथल में भी मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसी ही व्यवस्था थी। खुदाई के दौरान यहां 20 समाधियों के मिलने का भी जिक्र है। इनमें से एक ही ताबूत में 2 शव मिले जो कि महिला और पुरूष के थे। जो शव मिले हैं उनमें से कुछ की पहचान भी कर ली गई थी। यहां तक कि मनके बनाने वाला कारखाना भी खोज में मिला।

लोथल के पूर्वी छोर पर नीचे वाले भाग में जहाज़ों को ठहराने के लिए आर्टिफिशियल बंदरगाह जैसी रेक्टेंगुलर इमारत के अवशेष मिले हैं। इसकी पश्चिमी दीवार 212 मीटर पूर्वी दीवार 209 मीटर उत्तरी दीवार 36 मीटर और दक्षिणी दीवार 34 मीटर लंबी है। दीवारों की अधिकतम ऊंचाई 4 मीटर है। 

राखीगढ़ी के बारे में 1963 में पुरातत्वविदों का निष्कर्ष यह था कि सिंधु सभ्यता के शेष शहरों में यह एक विशाल नगरीय सभ्यता का सुबूत है। इसके अवशेष दिल्ली से सिर्फ़ 200 किलोमीटर दूर बिखरे पड़े हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने 1997 में यहां उत्खनन शुरू किया। तीन साल तक यह चलता रहा। इसके बाद इसे हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से भी विराट पाया गया। 

भले ही लोथल के लोगों के सामने कई चुनौतियां आई हों पर उन्होंने डट कर उसका सामना किया। अपने अच्छे और बुरे वक्त में लोथल के लोगों ने बहुत मेहनत की। लोथल के उजड़ने बसने की कहानी इतिहास में बहुत कुछ खंगालने का मौका देती है।

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