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इब्न-ए-इंशाः फ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सब कुछ माया हो!

By आदित्य द्विवेदी | Published: June 15, 2018 7:20 AM

15 जून 1927 को जन्मे इब्न-ए-इंशा ने उर्दू शायरी में एक अलग मुकाम बनाया।

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फ़र्ज़ करो हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने होंफ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूठी हों अफ़साने हों।

फ़र्ज़ करो ये जोग बिजोग का हमने ढोंग रचाया होफ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सब कुछ माया हो।

सूट-बूट पहनने वाले उर्दू का करिश्माई सूफी शायर इब्न-ए-इंशा का आज जन्मदिन है। उनके कलाम में एक बिछोह का एहसास होता है। इब्न-ए-इंशा का असली नाम शेर मुहम्मद खान था। उनका जन्म पंजाब के जालंधर जिले की फिल्लौर तहसील में 15 जून 1927 को हुआ था। उनके पिता राजस्थान से थे। उन्होंने 1946 में पंजाब यूनिवर्सिटी से बीए और 1953 में कराची यूनिवर्सिटी से एमए की पढ़ाई की। 

इब्न-ए-इंशा पाकिस्तान के मशहूर वामपंथी कवि और लेखक हैं। कविता के साथ-साथ उन्होंने बेहतरीन व्यंग्य लिखे। इब्ने इंशा पाकिस्तान की कई सरकारी सेवाओं से भी जुड़े रहे जिसमें रेडियो पाकिस्तान, नेशनल बुक सेंटर और संस्कृति मंत्रालय शामिल हैं। वो कुछ दिनों तक संयुक्त राष्ट्र में भी नियुक्त किए गए। वो हबीबुल्लाह गज़नफर अमरोहवी, डॉ गुलाम मुस्तफा और डॉ अब्दुल कय्यूम से काफी प्रभावित थे। उनकी मृत्यु 1978 में लंदन में हुई थी।

इब्न-ए-इंशा के जन्मदिन पर पढ़िए उनकी लिखी कुछ बेहतरीन शायरी...

कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तिरा कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तिरा 

हम भी वहीं मौजूद थे हम से भी सब पूछा किए हम हँस दिए हम चुप रहे मंज़ूर था पर्दा तिरा 

इस शहर में किस से मिलें हम से तो छूटीं महफ़िलें हर शख़्स तेरा नाम ले हर शख़्स दीवाना तिरा 

कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जाएँ मगर जंगल तिरे पर्बत तिरे बस्ती तिरी सहरा तिरा 

बेदर्द सुननी हो तो चल कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल आशिक़ तिरा रुस्वा तिरा शाइर तिरा 'इंशा' तिरा

वो रातें चाँद के साथ गईं वो बातें चाँद के साथ गईं अब सुख के सपने क्या देखें जब दुख का सूरज सर पर हो 

शाम-ए-ग़म की सहर नहीं होती या हमीं को ख़बर नहीं होती।

हम ने सब दुख जहाँ के देखे हैं बेकली इस क़दर नहीं होती।

दोस्तो इश्क़ है ख़ता लेकिन क्या ख़ता दरगुज़र नहीं होती।

एक दिन देखने को आ जाते ये हवस उम्र भर नहीं होती।

हुस्न सब को ख़ुदा नहीं देता हर किसी की नज़र नहीं होती।

एक से एक जुनूँ का मारा इस बस्ती में रहता हैएक हमीं हुशियार थे यारो एक हमीं बद-नाम हुए

कब लौटा है बहता पानी बिछड़ा साजन रूठा दोस्तहम ने उस को अपना जाना जब तक हाथ में दामाँ था

फ़र्ज़ करो हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने होंफ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूठी हों अफ़साने हों

फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता, जी से जोड़ सुनाई होफ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी, आधी हमने छुपाई हो

फ़र्ज़ करो तुम्हें ख़ुश करने के ढूंढे हमने बहाने होंफ़र्ज़ करो ये नैन तुम्हारे सचमुच के मयख़ाने हों

फ़र्ज़ करो ये रोग हो झूठा, झूठी पीत हमारी होफ़र्ज़ करो इस पीत के रोग में सांस भी हम पर भारी हो

फ़र्ज़ करो ये जोग बिजोग का हमने ढोंग रचाया होफ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सब कुछ माया हो

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