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कोरोना वायरसः इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी की सोच और निर्णय में यही फर्क रहा है!

By प्रदीप द्विवेदी | Updated: April 22, 2020 20:24 IST

कोरोना संकट ने एक बार फिर स्थानीय विकास की अवधारणा को प्रबल किया है. देश को ऐसे कार्यों, ऐसी योजनाओं की जरूरत है ताकि नागरिक अपने शहर, अपने गांव के आसपास ही रोजी, रोटी और मकान की जरूरत को पूरा कर सकें.

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ठळक मुद्देकांग्रेस ने अपने समय में माही परियोजना जैसी सिंचाई योजनाएं शुरू करके लोगों को अपने घर बैठे स्थाई राहत प्रदान की, पीएम मोदी सरकार गरीबों के खातों में पैसे डालकर, सिलेंडर बांट कर अस्थाई राहत के उपाय करती रही है.

जो फर्क स्थाई राहत और अस्थाई राहत में होता है वैसा ही फर्क इंदिरा गांधी और नरेन्द्र मोदी की सोच और निर्णय में भी रहा है. इसी दृष्टिकोण का नतीजा है कि कभी अकाल जैसे संकट में दक्षिण राजस्थान को छोड़ कर अन्य राज्यों में चले जाने वाले आदिवासी, आज कोरोना संकट में अन्य राज्यों से अपने घर आने का इंतजार कर रहे हैं.

कांग्रेस ने अपने समय में माही परियोजना जैसी सिंचाई योजनाएं शुरू करके लोगों को अपने घर बैठे स्थाई राहत प्रदान की, जबकि पीएम मोदी सरकार समय-समय पर गरीबों के खातों में पैसे डालकर, सिलेंडर बांट कर अस्थाई राहत के उपाय करती रही है.

दक्षिण राजस्थान की सबसे बड़ी माही परियोजना से सिंचाई के लिए नहरों से जलप्रवाह का शुभारंभ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बीसवीं सदी के आठवें दशक में किया था, जिसे आगे विस्तार पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय मिला. बांसवाड़ा के पहले प्रधानमंत्री भूपेन्द्रनाथ त्रिवेदी की परिकल्पना को आदिवासियों के नेता भीखाभाई ने साकार किया, तो राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी ने इसे बुलंदियों पर पहुंचाया. जहां-जहां भी माही की नहरों का पानी पहुंचा है, वहां-वहां की तस्वीर और लोगों की तकदीर ही पूरी तरह से बदल गई है.

भूदान आंदोलन के जनक विनोबा भावे न तो प्रधानमंत्री थे और न ही मुख्यमंत्री, उन्होंने बैंक में खाते खुलवा कर किसी किसान के खाते में पैसे भी नहीं डाले, लेकिन कई किसानों को इस आंदोलन के तहत खेती की जमीन मुफ्त में दिला कर जिन्दगी भर के लिए स्थाई खुशी के खाते जरूर खुलवा दिए.

कोरोना संकट ने एक बार फिर स्थानीय विकास की अवधारणा को प्रबल किया है. देश को ऐसे कार्यों, ऐसी योजनाओं की जरूरत है ताकि नागरिक अपने शहर, अपने गांव के आसपास ही रोजी, रोटी और मकान की जरूरत को पूरा कर सकें. इन 70 वर्षों में दक्षिण राजस्थान ने न केवल अकाल जैसी भयानक आपदा से मुक्ति पाई है, बल्कि कष्टप्रद नारू रोग, टीबी, पोलियो आदि का भी खात्मा हुआ है.

आज दक्षिण राजस्थान में दो तरह के क्षेत्र हैं, सिंचित और असिंचित. अगर भविष्य में असिंचित क्षेत्रों में पानी पहुंचाया जा सके, तो आदिवासियों को घर बैठे रोजी-रोटी तो मिलेगी ही, देश की अन्न उत्पादन क्षमता का भी विकास होगा.असिंचित क्षेत्र में सौर ऊर्जा के लिए भी बेहतर संभावनाएं हैं. यदि दक्षिण राजस्थान के युवाओं को खेती, सौर ऊर्जा आदि का प्रायोगिक प्रशिक्षण दिया जाए तो इनकी प्रतिभा देश के विकास के लिए अमूल्स साबित होगी!

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