आजादी के बाद के 15-20 सालों में देश अलग तरह की चुनौतियों से गुजर रहा था। अंग्रेज देश छोड़कर जा चुके थे। आजादी मिल चुकी थी लेकिन सामाजिक आजादी का सफर एक रात का नहीं होता। प्रजातंत्र आ चुका था लेकिन स्थिति डांवाडोल थी। ऐसे वक्त में सुदामा पांडे 'धूमिल' जैसे कवियों की भूमिका बहुत अहम हो जाती है। उनकी एक-एक कविता उस वक्त की स्थिति का हस्ताक्षर है। सुदामा पांडे 'धूमिल' ने सिर्फ तीन कविता संग्रह ही लिखे लेकिन प्रजातांत्रिक व्यवस्था और देश की स्थितियों को नापने में सफल रहे हैं। हिंदी साहित्य में उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाता है।
सुदामा पांडेय 'धूमिल' का जन्म 9 नवंबर 1936 को वाराणसी के निकट गाँव खेवली में हुआ था। धूमिल के पिता शिवनायक पांडे एक मुनीम थे व इनकी माता रजवंती देवी घर-बार संभालती थी। जब धूमिल ग्यारह वर्ष के थे तो इनके पिता का देहांत हो गया। 12 वर्ष में ही धूमिल का विवाह हो गया। उनका बचपन कठिनाइयों भरा था इसके बावजूद उन्होंने हाईस्कूल उत्तीर्ण किया। काम के सिलसिले में वो कलकत्ता गए लेकिन उनके तेवरों ने वापस वाराणसी वापस आने पर मजबूर कर दिया।
वापस आकर उन्होंने काशी विश्वविद्यालय के औद्योगिक संस्थान से डिप्लोमा किया और इसके बाद वहीं विद्युत अनुदेशक के पद पर तैनाती मिल गई। अक्टूबर 1974 में धूमिल के सिर में असहनीय दर्द उठा जिसके बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। ब्रेन ट्यूमर की सर्जरी के बाद वो दोबारा उठ नहीं सके और 10 फरवरी 1975 को काल के भाजक बने।
धूमिल के जन्मदिन पर पढ़िए उनकी चर्चित कविता मोचीराम। धूमिल ने जितना भी लेखन किया है उसका लेखा-जोखा ‘मोचीराम’ कविता में है और ‘मोचीराम’ कविता के आधार पर धूमिल की काव्य संवेदना पर प्रकाश डाला जा सकता है।
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मोचीराम
राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझेक्षण-भर टटोलाऔर फिरजैसे पतियाये हुये स्वर मेंवह हँसते हुये बोला-बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह मेंन कोई छोटा हैन कोई बड़ा हैमेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता हैजो मेरे सामनेमरम्मत के लिये खड़ा है।
और असल बात तो यह हैकि वह चाहे जो हैजैसा है,जहाँ कहीं हैआजकलकोई आदमी जूते की नाप सेबाहर नहीं हैफिर भी मुझे ख्याल है रहता हैकि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीचकहीं न कहीं एक आदमी हैजिस पर टाँके पड़ते हैं,जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती परहथौड़े की तरह सहता है।
यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैंऔर आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’बतलाते हैंसबकी अपनी-अपनी शक्ल हैअपनी-अपनी शैली हैमसलन एक जूता है:जूता क्या है-चकतियों की थैली हैइसे एक आदमी पहनता हैजिसे चेचक ने चुग लिया हैउस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी हैजैसे ‘टेलीफ़ून ‘ के खम्भे परकोई पतंग फँसी हैऔर खड़खड़ा रही है।
‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?’मैं कहना चाहता हूँमगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही हैमैं महसूस करता हूँ-भीतर सेएक आवाज़ आती है-’कैसे आदमी होअपनी जाति पर थूकते हो।’आप यकीन करें,उस समयमैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँऔर पेशे में पड़े हुये आदमी कोबड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ।
एक जूता और है जिससे पैर को‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता हैसैर कोन वह अक्लमन्द हैन वक्त का पाबन्द हैउसकी आँखों में लालच हैहाथों में घड़ी हैउसे जाना कहीं नहीं हैमगर चेहरे परबड़ी हड़बड़ी हैवह कोई बनिया हैया बिसाती हैमगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
‘इशे बाँद्धो,उशे काट्टो,हियाँ ठोक्को,वहाँ पीट्टोघिस्सा दो,अइशा चमकाओ,जूत्ते को ऐना बनाओ…ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’रुमाल से हवा करता है,मौसम के नाम पर बिसूरता हैसड़क पर ‘आतियों-जातियों’ कोबानर की तरह घूरता हैगरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता हैमगर नामा देते वक्तसाफ ‘नट’ जाता हैशरीफों को लूटते हो’ वह गुर्राता हैऔर कुछ सिक्के फेंककरआगे बढ़ जाता है
अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता हैऔर पटरी पर चढ़ जाता हैचोट जब पेशे पर पड़ती हैतो कहीं-न-कहीं एक चोर कीलदबी रह जाती हैजो मौका पाकर उभरती हैऔर अँगुली में गड़ती है।
मगर इसका मतलब यह नहीं हैकि मुझे कोई ग़लतफ़हमी हैमुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूतेऔर पेशे के बीचकहीं-न-कहीं एक अदद आदमी हैजिस पर टाँके पड़ते हैंजो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोटछाती परहथौड़े की तरह सहता है
और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछेअगर सही तर्क नहीं हैतो रामनामी बेंचकर या रण्डियों कीदलाली करके रोज़ी कमाने मेंकोई फर्क नहीं हैऔर यही वह जगह है जहाँ हर आदमीअपने पेशे से छूटकरभीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता हैसभी लोगों की तरहभाष़ा उसे काटती हैमौसम सताता हैअब आप इस बसन्त को ही लो,यह दिन को ताँत की तरह तानता हैपेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा़रों सुखतल्लेधूप में, सीझने के लिये लटकाता है
सच कहता हूँ-उस समयराँपी की मूठ को हाथ में सँभालनामुश्किल हो जाता हैआँख कहीं जाती हैहाथ कहीं जाता हैमन किसी झुँझलाये हुये बच्चे-साकाम पर आने से बार-बार इन्कार करता हैलगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछेकोई जंगल है जो आदमी परपेड़ से वार करता है
और यह चौकने की नहीं,सोचने की बात हैमगर जो जिन्दगी को किताब से नापता हैजो असलियत और अनुभव के बीचखून के किसी कमजा़त मौके पर कायर हैवह बड़ी आसानी से कह सकता हैकि यार! तू मोची नहीं ,शायर हैअसल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी काशिकार है
जो वह सोचता कि पेशा एक जाति हैऔर भाषा परआदमी का नहीं,किसी जाति का अधिकार हैजबकि असलियत है यह है कि आगसबको जलाती है सच्चाईसबसे होकर गुज़रती है
कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैंकुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैंवे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैंऔर पेट की आग से डरते हैंजबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई एक चीख़’और ‘एक समझदार चुप’दोनों का मतलब एक है-भविष्य गढ़ने में ,’चुप’ और ‘चीख’अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म सेअपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं।