भारतीय राजनीति में हाल ही में संपन्न दिल्ली के विधानसभा चुनावों से जो परिपक्वता देखने को मिली है वह सराहनीय है. दिल्ली में प्रति व्यक्ति आय भारत के सभी शहरों की तुलना में अधिक है और औसत साक्षरता दर वर्ष 2019 के आंकड़ों के अनुसार पुरुषों में 90 प्रतिशत तथा महिलाओं में 70 प्रतिशत है. एक ऐसे चुनाव में, जिसमें उन्माद चरम सीमा पर पहुंच गया था, लोगों ने साबित कर दिया कि लोकतंत्र अभी भी जीवित है. नकारात्मक राजनीति को लोगों ने नकार दिया. अति राष्ट्रवाद और धर्म आधारित राजनीति को स्वीकार नहीं किया. वास्तव में ‘आम आदमी’ की वापसी हुई है. राजेश खन्ना पर फिल्माया गया मशहूर गीत ‘ये जो पब्लिक है सब जानती है’ इससे बेहतर और कहीं फिट नहीं हो सकता.
इस चुनाव में प्रत्येक के लिए सबक है. भाजपा के लिए सबक यह है कि उसके रणनीतिकारों को अपनी रणनीति पर दुबारा विचार करना चाहिए. शुरुआत तो उन्होंने ‘सबका साथ, सबका विकास’ और ‘सबका विश्वास’ के नारे के साथ अच्छी की थी, लेकिन फिर उस दिशा में बढ़ने से उन्होंने अपने आपको रोक लिया. जरूरी नहीं है कि राष्ट्रवाद का मुद्दा हमेशा काम करे. जब देश के युवा रोजगार की तलाश में होते हैं और वह उन्हें नहीं मिलता तो वे अपनी असफलताओं और दुर्भाग्य के विश्वसनीय कारणों की तलाश करते हैं. राष्ट्रवाद और धर्म का मुद्दा खाली पेट काम नहीं करता है.
एक ऐसी पार्टी, जिसने करीब आठ माह पहले ही हुए लोकसभा चुनाव में भारी जीत हासिल की हो, अगर विधानसभा चुनाव में दहाई के आंकड़े तक भी नहीं पहुंचती तो निश्चित रूप से उसे आत्मनिरीक्षण करना चाहिए. नकारात्मक राजनीति में शामिल होने के बजाय अगर पार्टी के कर्ता-धर्ता और रणनीतिकार विकास के मुद्दे को लेकर चलते तो परिणाम निश्चित रूप से इससेभिन्न होता.
दिल्ली के चुनाव ने राजनीतिक दलों को काम करने के लिए नई राह सुझाई है. पहली बात तो यह कि दो ध्रुवीय या द्विदलीय प्रणाली सफलता की दृष्टि से बेहतर होती है. यह जरूरी है कि गठबंधन पहले ही बन जाएं ताकि मुकाबले सीधे हों. दिल्ली के मामले में कांग्रेस ने अगर बेहतर प्रदर्शन किया होता तो उसका फायदा सीधे भाजपा को होता. वहां कांग्रेस के संपूर्ण सफाये ने वास्तव में आम आदमी पार्टी को भारी जीत हासिल करने में मदद की है.