दिल्ली विधानसभा के चुनाव नतीजों ने दिखाया है कि राजनीति में जो नैतिक रूप से अनुचित होता है, वह रणनीतिक रूप से भी अलाभकारी साबित हो सकता है. मसलन, अगर भाजपा ने नए नागरिकता कानून के खिलाफ खड़े शाहीन बाग के आंदोलन को केंद्र बना कर ‘हिंदुस्तान बनाम पाकिस्तान’, ‘गोली मारो..’ और ‘घर में घुस कर बलात्कार होगा’ के तर्ज पर नकारात्मक चुनाव प्रचार न किया होता तो कम से कम दो बातें उसके खिलाफ न जातीं.
पहली, मुसलमान वोटों का इतना प्रबल ध्रुवीकरण आम आदमी पार्टी के पक्ष में न हुआ होता. कुछ न कुछ मुसलमान वोट कांग्रेस को जरूर मिलते, और नजदीकी लड़ाई वाली कुछ सीटें भाजपा और जीत गई होती. इस प्रकार पार्टी द्वारा अपनाई गई असाधारण रूप से अनुचित सांप्रदायिक भाषा ने चुनाव को तितरफा करने की उसी की रणनीति को नुकसान पहुंचा दिया. दूसरी, इसी घिनौने सांप्रदायिक प्रचार का परिणाम यह हुआ कि संपन्न तबकों के वोटरों का एक बड़ा हिस्सा (जो 2015 के बाद भाजपा की तरफ झुकने लगा था) एक बार फिर आम आदमी पार्टी की तरफ चला गया. दरअसल, इस प्रचार के भीतर हिंसा का लावा खदबदा रहा था और कोई भी धर्म मानने वाले समझदार नागरिक की हमदर्दी आसानी से इस तरह के प्रचार के जरिये नहीं हासिल की जा सकती.
कुछ भाजपा समर्थकों की दलील है कि उसने अपने वोट 32 से बढ़ा कर 39 फीसदी कर लिए, और अगर वह इस तरह का प्रचार न करती तो यह प्रतिशत बढ़ने के बजाय घट जाता. यह एक खोखला तर्क है. भारत में जिस चुनाव प्रणाली से निर्वाचन होता है, वह वोटों के प्रतिशत के आधार पर काम नहीं करती. इसके तहत 49 वोट मिलने वाले को कुछ नहीं मिलता, और उससे एक-दो ज्यादा वोट पाने वाला जीता हुआ घोषित कर दिया जाता है. इस प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार का कोई प्रावधान नहीं है.
कुछ टीवी एंकर यह योजना बना रहे थे कि आम आदमी पार्टी के चुनाव जीतने (जो लगभग तय था) के साथ ही वे गृह मंत्री अमित शाह को ‘मैन ऑफ द मैच’ घोषित कर देंगे, क्योंकि भाजपा को कम से कम पच्चीस सीटें तो मिलेंगी ही (स्वयं अमित शाह का अनुमान था कि उन्हें चालीस से ज्यादा सीटें मिल सकती हैं और यह अनुमान पार्टी द्वारा रोज कराए जाने वाले सर्वेक्षणों पर आधारित था जिनके अनुसार उन्हें प्रतिदिन अपना वोट प्रतिशत बढ़ता दिख रहा था). लेकिन, 39 फीसदी वोट भी उन्हें केवल आठ सीटें जिता पाया, जिसमें एक सीट तो वह गिनती के वोटों से ही जीत पाई और एक सीट इसलिए जीती कि उस पर कांग्रेस का उम्मीदवार बीस हजार वोट प्राप्त करने में सफल हुआ.
जाहिर है कि इन सीटों की जीत भी बढ़े हुए वोट प्रतिशत का परिणाम नहीं मानी जा सकती. दूसरे, सीधी टक्कर में वोटों के सीटों में बदलने के लिए जितना बड़ा प्रतिशत आवश्यक होता है, वह जरूरत 39 फीसदी से पूरी नहीं हो सकती थी. उसके लिए भाजपा को कम से कम 45 फीसदी वोट चाहिए थे, जिन्हें हासिल करने में वह नाकाम रही. ऐसा लगता है कि भाजपा के बढ़े हुए लगभग सात फीसदी वोट उन गैर-मुसलमान वोटरों से आए होंगे जिनसे पिछली बार कांग्रेस का 9.7 प्रतिशत वोट तैयार हुआ था.
मैं पहले भी कह चुका हूं कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत की बुनियाद उसी समय रख दी गई थी जब अपने पहले बजट में इस शहर-राज्य की सरकार ने सामाजिक क्षेत्र (स्वास्थ्य, शिक्षा वगैरह) के लिए जबरदस्त आवंटन किए थे. एक ऐसे वक्त में जब सामाजिक क्षेत्र पर पैसा खर्च करने का नव-उदारतावादी अर्थव्यवस्था के पैरोकारों द्वारा विरोध किया जा रहा हो, इस तरह के बजट के लिए खासी हिम्मत की जरूरत थी. इस बजट-आवंटन के गर्भ से ही आम आदमी पार्टी का लोकोपकारी मॉडल निकला जो मोदी के लोकोपकारी मॉडल से अलग था.
मोदी की लोकोपकारी योजनाएं जनता के जिस हिस्से को स्पर्श करती हैं, उस तरह की जनता दिल्ली में न के बराबर ही है. लगता है कि केजरीवाल ने इस अंतर को शुरू में ही समझ लिया था. उन्होंने देख लिया था कि कांग्रेस के शासनकाल में बिजली के निजीकरण के परिणामों से दिल्ली के लोग खासे दुखी हैं. बीस हजार की आमदनी वाले लोगों को दो से तीन हजार का बिजली बिल देना पड़ रहा था. इस मुकाम पर मिली राहत ने दिल्ली वालों को आम आदमी पार्टी के पक्ष में निर्णायक रूप से झुका दिया. दिल्ली में अगर भाजपा को अपनी किस्मत में तब्दीली लानी है तो उसे मोदी के लोकोपकारी मॉडल से अलग हट कर दिल्ली की जनता के आíथक किरदार को समझना होगा. यही कारण है कि जिस समय दिल्ली में भाजपा के ‘स्टार प्रचारक’ योगी आदित्यनाथ सभाओं में भाषण कर रहे थे, उस समय वोटरों के बीच उनकी आलोचना इसलिए हो रही थी कि वे उत्तर प्रदेश में अत्यंत महंगी बिजली बेच रहे हैं.
सीएए के खिलाफ जब प्रदर्शन शुरू हुए थे, तो एक पोस्टर बहुत लोकप्रिय हुआ था. इसमें लिखा था- ‘हिंदू हूं, बेवकूफ नहीं.’ इसी बात को इस तरह भी कहा जा सकता है- ‘वोटर हूं, बेवकूफ नहीं.’ यह दिल्ली के मतदाताओं का भाजपा के लिए संदेश है.