देवेंद्र दर्डा
मुझे पूरी तरह से पता है कि आज की दुनिया में, जहां व्यक्तिगत पसंद को इतने जोरदार तरीके से तरजीह दी जाती है, लोगों से उनकी आहार संबंधी प्राथमिकताओं पर पुनर्विचार करने के लिए कहना संवेदनशील हो सकता है. फिर भी, मेरा तर्क किसी धार्मिक दृष्टिकोण नहीं, बल्कि विज्ञान, करुणा और जिम्मेदारी पर आधारित है. मांस की खपत कम करना हमारे ग्रह की रक्षा, जल संरक्षण, भूखों के लिए भोजन सुनिश्चित करने और शांति एवं सद्भाव को बढ़ावा देने के लिए उठाए जा सकने वाले सबसे प्रभावशाली कदमों में से एक है.
क्या आप जानते हैं कि दुनिया की 80 प्रतिशत से ज्यादा कृषि भूमि का उपयोग पशुओं के चरने या उनके चारे के उत्पादन के लिए किया जाता है? फिर भी, इसका प्रतिफल बहुत कम है. उदाहरण के लिए, अकेले बीफ उत्पादन के लिए इस भूमि के 60 प्रतिशत हिस्से का उपयोग होता है, लेकिन यह दुनिया की कुल कैलोरी का केवल 4 प्रतिशत ही प्रदान करता है.
इसका मतलब है कि मवेशियों के चारे के लिए उगाई जाने वाली 96 प्रतिशत फसल वास्तव में व्यर्थ जाती है. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार, इस तरह बर्बाद होने वाले भोजन से दुनिया भर में 350 करोड़ लोगों का पेट भरा जा सकता है. पानी के उपयोग की भी कुछ ऐसी ही कहानी है.
पशुपालन, जिसमें चारा सिंचाई और प्रसंस्करण भी शामिल है, में दुनिया के लगभग 20-33 प्रतिशत मीठे पानी की खपत होती है. इसे इस परिप्रेक्ष्य में देखें : एक किलो बीफ उत्पादन में 15000 लीटर से ज्यादा पानी की जरूरत होती है; मटन के लिए लगभग 8800 लीटर; पोर्क के लिए 6000 लीटर और चिकन के लिए 4300 लीटर पानी लगता है.
इसके विपरीत, सब्जियों के लिए प्रति किलो केवल लगभग 300 लीटर पानी की आवश्यकता होती है. स्पष्ट रूप से, मांस की खपत कम करना केवल आहार का मामला नहीं है - यह खाद्य और जल सुरक्षा के लिए भी आवश्यक है. जलवायु पर पड़ने वाला प्रभाव भी उतना ही भयावह है. मांस और डेयरी उद्योग वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 15 प्रतिशत से ज्यादा का योगदान देते हैं- लगभग सभी कारों, ट्रकों, जहाजों और विमानों के कुल उत्सर्जन के बराबर. 20 सबसे बड़ी मीट कंपनियां जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन या ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों से भी ज्यादा उत्सर्जन करती हैं.
ज्यादा मांसाहारी आहार शाकाहारी आहार की तुलना में लगभग दोगुनी ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित करता है. अगर हम जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए गंभीर हैं, तो हम इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकते. फिर पशु कल्याण का प्रश्न है. अकेले 2023 में, मानव जाति ने भोजन के लिए 8400 करोड़ से अधिक स्थलीय पशुओं को मार डाला- हर दिन 23 करोड़ से अधिक.
यह आंकड़ेवारी हर साल बढ़ती ही जा रही है. कई पोल्ट्री फार्मों में, नर चूजों को जन्म के कुछ घंटों के भीतर ही गैस से मार दिया जाता है या टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाता है क्योंकि उनका कोई आर्थिक मूल्य नहीं होता. मवेशियों को अक्सर तंग जगहों में बंद कर दिया जाता है, उन्हें जीवित रखने के लिए एंटीबायोटिक्स दिए जाते हैं,
और बछड़ों को पैदा होते ही उनसे अलग कर दिया जाता है ताकि उनका दूध निकाला जा सके. उनके सिर इस तरह से बंद कर दिए जाते हैं कि वे केवल खा सकें. ऐसा उन्हें मोटा करने के लिए किया जाता है. इससे उन्हें कई तरह की बीमारियां हो जाती हैं. अमेरिका में लगभग 80 प्रतिशत एंटीबायोटिक्स पशुधन द्वारा खाए जाते हैं,
जिससे प्रतिरोध की आशंका बढ़ जाती है जो मानव स्वास्थ्य के लिए भी खतरा बन सकती है. ऐसी क्रूरता एक सभ्य समाज के मूल्यों को ही चुनौती देती है. तो सवाल यह है : क्या हम सिर्फ अपनी स्वाद-कलिकाओं को संतुष्ट करने के लिए इन सब बातों को नजरअंदाज करने को तैयार हैं?
यह आनंद त्यागने की बात नहीं है, बल्कि अपने और आने वाली पीढ़ियों के लिए समझदारी भरे फैसले लेने की बात है. मांस का सेवन कम करने से- भले ही इसे पूरी तरह से खत्म न किया जाए- जलवायु परिवर्तन से लड़ने, बहुमूल्य संसाधनों का संरक्षण करने, भूखों को भोजन देने और हमारी दुनिया में करुणा को बढ़ावा देने में मदद मिल सकती है.