बकौल विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) दुनिया में कुत्तों के काटने से होने वाले रैबीज से मौत के 36 प्रतिशत मामले भारत में होते हैं. यह संख्या 18000 से 20000 के बीच है. रैबीज से होने वाली मौतों में से 30 से 60 प्रतिशत मामलों में पीड़ित की उम्र 15 साल से कम होती है. इस पर कोई विवाद नहीं कि एक भी व्यक्ति की जान इस तरह जाए तो यह मानवता पर सवाल है और उसे बचाने के लिए सरकार और समाज को कड़े कदम उठाने चाहिए.
मनुष्य ने शुरुआत से ही कुत्ता पालना शुरू कर दिया था. हमें पाषाण काल (नव पाषाण काल लगभग 4000 ईसा पूर्व से 2500 ईसा पूर्व) के मानव कंकाल के साथ कुत्ता दफनाने के साक्ष्य बुर्जहोम (जम्मू-कश्मीर) से प्राप्त हुए हैं. आदि काल में कुत्ता इंसान को शिकार करने में मदद करता था, फिर वह घर व फसल की सुरक्षा भी करता था. सबसे बड़ी बात, कम भोजन में भी वफादार बने रहने के उसके गुण ने आज कुत्ते को इंसान द्वारा पाले जाने वाले सबसे विश्वस्त और सर्वाधिक संख्या का जानवर बना दिया. फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि वे समस्या बन गए हैं?
‘बैलों के गले में जब घुंघरू जीवन का राग सुनाते हैं’ यह गीत कोई बहुत पुराना नहीं है. तब बैल घर की प्रतिष्ठा और दरवाजे पर बंधी गाय पवित्रता के प्रतीक हुआ करते थे. धीरे से ट्रैक्टर आया. जब जमीन की जोत ही छोटी हो गई और ट्रैक्टर नाम का ‘हाथी’ दरवाजे पर बंध गया तो खेती घाटे का सौदा हुई. बैल लुप्त हुए और गाय निराश्रित.
जिन लोगों ने गाय को दरवाजे से हटा कर गौशाला में ले जाने को पावन कार्य बनाया, वही वर्ग अब सड़कों से कुत्ते हटाने के तर्क गढ़ रहा है. ये वही वर्ग है जो सरकार की उस योजना का समर्थक है जो प्रकृति के नियमों के विरुद्ध केवल बछिया पैदा करने के सीरम गांव-गांव बांटे जाने का समर्थन करता है. केवल उत्तर प्रदेश राज्य में ही 16 लाख से अधिक निराश्रित (आवारा) गायें मौजूद हैं.
पूरे भारत में निराश्रित गायों की सटीक संख्या के लिए राष्ट्रीय पशुगणना 2025 के पूर्ण नतीजों की प्रतीक्षा की जा रही है, लेकिन पिछली गणनाओं और अलग-अलग राज्य रिपोर्ट्स के अनुसार यह संख्या 50 लाख से अधिक मानी जाती है. कहना न होगा कि गोशालाओं की संख्या इसकी तुलना में ऊंट के मुंह में जीरा के समान है और जो हैं भी, उनमें से अधिकांश अव्यवस्था की शिकार हैं.
क्या कभी विचार किया गया कि जलवायु परिवर्तन, खासकर बहुत तीखी गर्मी और अचानक ज्यादा या बहुत तेज बरसात का सीधा असर इन बेसहारा कुत्तों ही नहीं अन्य जानवरों पर भी पड़ रहा है? और जब इंसान इतने बड़े बदलाव को समझ नहीं पा रहा है तो जाहिर है कि कुत्तों को इसके साथ सामंजस्य बैठाने में समय तो लगेगा ही. ऐसे में जब मौसम की मार में इंसान भी उन पर क्रोध दिखाता है तो उनका जानवरपन उभर आता है.
इसके साथ ही दिनोंदिन बढ़ते शहरीकरण के चलते बढ़ते जा रहे शोर, ट्रैफिक, प्रदूषण, बेतरतीब पड़े कचरे से मांसाहारी खाना और फिर उसका चस्का, परिसरों में रोशनी की चकाचौंध ने भी कुत्तों को असहज बना दिया है. हम-आप तो लाइट ऑफ भी कर सकते हैं, शहरों में रहने वाले कुत्तों से लेकर चिड़िया तक को ऐसी सुविधा तो है नहीं!
बेशक, धरती पर सभी जीवों का संख्या नियंत्रण जरूरी है. निराश्रित कुत्तों की नसबंदी और टीकाकरण भी होना चाहिए. इससे आवारा कुत्तों की समस्या का निराकरण हो सकता है.