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ब्लॉग: अतुलनीय हैं उन स्वाभिमानी संपादकों की सेवाएं

By कृष्ण प्रताप सिंह | Updated: May 30, 2024 12:41 IST

यह बड़ी भूमिका हिंदी पत्रकारिता के 'शिल्पकार' और 'भीष्म पितामह' कहलाने वाले मराठीभाषी बाबूराव विष्णु पराड़कर से बहुत पहले से दिखाई देने लगती है, लेकिन उसे ठीक से रेखांकित उन्हीं के समय से किया जाता है।

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ठळक मुद्देपत्रिका 'सरस्वती' के संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की उसे उत्कृष्ट बनाए रखने की जिदएक सज्जन ने उसके लिए उन्हें अपनी कविताएं भेजीं- महावीर प्रसाद द्विवेदीअरसे तक न छपने पर याद दिलाया, 'मैं वही हूं, जिसने एक बार आपको गंगा में डूबने से बचाया था'

हिंदी भाषा, खासतौर पर उसके शब्दों व पत्रकारिता (वह साहित्यिक हो, सामाजिक या राजनीतिक) का अब तक जो भी संस्कार या मानकीकरण संभव हो पाया है, दूसरे शब्दों में कहें तो उनके स्वरूप में जो स्थिरता आई है, उस सबके पीछे एक समय उसके उन्नयन की अगुआई में अपना सब कुछ दांव पर लगा देने वाले स्वाभिमानी संपादकों की समूची पीढ़ी की जज्बे व जिदों से भरी अहर्निश सेवाओं की बहुत बड़ी भूमिका रही है।

यह बड़ी भूमिका हिंदी पत्रकारिता के 'शिल्पकार' और 'भीष्म पितामह' कहलाने वाले मराठीभाषी बाबूराव विष्णु पराड़कर से बहुत पहले से दिखाई देने लगती है, लेकिन उसे ठीक से रेखांकित उन्हीं के समय से किया जाता है। इसे यों समझ सकते हैं कि सर्वश्री, राष्ट्रपति और मुद्रास्फीति जैसे अनेक शब्द, जिनका आज हिंदी पत्रकारिता में धड़ल्ले से प्रयोग किया जाता है, उन्होंने ही हिंदी को दिए।

साहित्यिक पत्रकारिता की बात करें तो अपने वक्त की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका 'सरस्वती' के संपादक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की उसे उत्कृष्ट बनाए रखने की जिद यहां तक थी कि कहते हैं, एक सज्जन ने उसके लिए उन्हें अपनी कविताएं भेजीं और अरसे तक उनके न छपने पर याद दिलाया कि 'मैं वही हूं, जिसने एक बार आपको गंगा में डूबने से बचाया था', तो आचार्य द्विवेदी का जवाब था: आप चाहें तो मुझे ले चलिये, मुझे गंगा में वहीं फिर से डुबो दीजिए, जहां आपने डूबने से बचाया था, लेकिन मैं ये कविताएं सरस्वती में नहीं छाप सकता। उन्हीं की 'सरस्वती' से निकले गणेशशंकर विद्यार्थी अपने द्वारा संपादित 'प्रताप' के मुखपृष्ठ पर उसके मास्टहेड के ठीक नीचे यह काव्य पंक्ति छापते थे: 'जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है। वह नर नहीं, नर पशु निरा है और मृतक समान है'। उन्होंने 1930 में गोरखपुर में हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन की अध्यक्षता की तो 'प्रताप' में उसकी रपट के साथ उसका चित्र छापने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि उसमें वे भी शामिल थे और प्रताप में उसके संपादक का चित्र छापने या उसका महिमामंडन करने की सर्वथा मनाही थी। 'विशाल भारत' के बहुचर्चित संपादक बनारसीदास चतुर्वेदी की वृत्ति और भी स्वतंत्र व विशिष्ट थी। उनके प्रायः सारे संपादकी फैसलों की एक ही कसौटी थी: क्या उससे देश, समाज उसकी भाषाओं और साहित्यों, खासकर हिंदी का कुछ भला होगा या मानव जीवन के किसी भी क्षेत्र में उच्चतर मूल्यों की प्रतिष्ठा होगी।

गौरतलब है कि यहां उल्लिखित संपादक बटलोई के चावल भर हैं और हिंदी भाषा व पत्रकारिता अपने उन्नयन के लिए ऐसे और भी कितने ही समर्पित संपादकों की जिद और जज्बे की कर्जदार है। हिंदी पत्रकारिता दिवस सच पूछिए तो उन सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का दिन है।

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