सुजाता बजाज
23 जुलाई 2016 को सुबह-सुबह समाचार मिला कि रजा साहब नहीं रहे। मानस पटल पर यादों की कतार सी लग गई। आखिर करीब 25 लंबे वर्षों का संबंध था। हम एक-दूसरे का परिवार थे, बेस्ट फ्रेंड थे, वे मेरी शादी के विटनेस थे और न जाने क्या-क्या, हर चीज में एक-दूसरे का साथ था।
सोचती हूं बड़ी भाग्यवान हूं कि इतने बड़े कलाकार व ऐसे अनोखे व्यक्ति को इतने करीब से जाना, देखा व उनसे बहुत कुछ सीखने का मौका मिला। 2016 की फरवरी की बात है, मैं दिल्ली पहुंची, अपने गणपति एग्जिबिशन के लिए। सोच रही थी कि रजा साहब शायद अपनी व्हीलचेयर पर मेरे शो की ओपनिंग पर आ जाएं। पर उस रात कुछ अनहोनी सी हुई।
उस रात रजा साहब सपने में आए, मुझे उठाया, हमने बातें कीं, शो के लिए गुड लक दिया व कहने लगे, सुजाता आखिरी बार मुझसे मिलने आ जाओ। अब मैं जानेवाला हूं। तुम जब अगली बार दिल्ली आओगी तो मैं नहीं रहूंगा। ये सब इतना वास्तविक था कि मैंने जाने का मन बना लिया। वे अस्पताल में शून्य की तरह लेटे हुए थे, आंख भी खोलना मुमकिन न था। मैंने उनके हाथों को छुआ, उसमें कोई जान न थी, सिर्फ सांस चल रही थी। मैंने प्रणाम किया, अलविदा कहकर लौट आई।
वर्ष 1984 में मैं अपने पीएचडी के अंतिम अध्याय पर काम कर रही थी व उसके लिए भारत के सब नामी कलाकारों का इंटरव्यू ले रही थी। तभी एक दिन जहांगीर आर्ट गैलरी में शो देखते समय किसी ने कहा, अरे ये तो एस.एच. रजा हैं। मैं एकदम अलर्ट हो गई क्योंकि मेरी लिस्ट में उनका भी एक नाम था। मैंने उनके नजदीक जाकर बात करने की कोशिश की, पर अपनी व्यस्तता में उन्होंने ध्यान नहीं दिया तो आखिर मैंने उनकी कमीज की बांह खींचकर कहा, रजा साहब आपसे बात करनी है। वे देखते ही रह गए।
उन्होंने मुझे इंटरव्यू दिया, बहुत सारी बातें हुईं। अचानक मुझसे पूछने लगे कि आप और क्या-क्या करती हैं। मैंने कहा, मैं आर्टिस्ट हूं, पेंट करती हूं। वे तुरंत खड़े हो गए और कहने लगे, चलो तुम्हारा काम देखना है। मैं सोच में पड़ गई। मेरा काम तो पुणे में है - वे बोले चलो पुणे। ताज के सामने से हमने टैक्सी ली और सीधे पुणे पहुंचे। मेरा काम देखा और फिर कहा आपको पेरिस आना है। आपका भविष्य बहुत उज्ज्वल है।
मेरे पास उनके हस्तलिखित करीब 100 पत्र हैं। 25 वर्षों में अलग-अलग समय पर लिखे हुए। मेरे जैसे एक यंग आर्टिस्ट को कला की तरफ कैसे देखना है, लगन से काम करना है। लाइन और रंगों का महत्व समझना - उन्हें महसूस करना, जिंदगी की बारीकियों को - सब को बड़े विस्तार से लिखा है। पेरिस के लिए उनका प्यार, उनके चारों तरफ के लोग, उनके दृष्टिकोण- सब का लिखित चित्र हैं ये पत्र। अनेक बार मैं उनको निकालकर पढ़ती हूं तो हर बार कुछ नया सीख लेती हूं। ये मेरा एक खजाना है।
22 अक्तूबर 1988 को मैं पेरिस के गारदीनोर स्टेशन पर लंदन से ट्रेन से पहुंची। रजा साहब स्टेशन पर मेरा इंतजार कर रहे थे। ट्रेन लेट थी, पर वहीं डटे रहे। मुझे रिसीव करके मेरे होस्टल के कमरे में छोड़कर ही गए। पेरिस में हर छोटी चीज उन्होंने मुझे सिखाई जैसे फोन कार्ड कैसे यूज करना। मेट्रो कैसे लेना। आर्ट मटेरियल कहां से खरीदना इत्यादि। रोजमर्रा की प्रैक्टिकल चीजें अभी भी मुझे याद हैं। एक दिन मैं बीमार अपने कमरे में पड़ी थी। रात 11 बजे रजा साहब मेरे लिए दवा, इंडियन रेस्टाॅरेंट से खाना पैक करवा कर लेकर आए। मेरे घरवालों को फोन कर कहा, आप लोग चिंता न करें, मैं हूं पेरिस में सुजाता की चिंता करने के लिए। रजा साहब के होने से मेरे माता-पिता निश्चिंत रहते थे। इस सब से मुझे आत्मविश्वास व भावनात्मक सुरक्षा की अनुभूति होती थी और मैं अपने को काम में लगा देती थी।
हर बार जब मैं या रजा साहब पेंटिंग पूरी करते तो सबसे पहले एक-दूसरे को दिखाते थे। हमने कभी एक-दूसरे को काम करते हुए नहीं देखा। दोनों को एकांत में काम करने की आदत थी। पर एक दूसरे के सिंसियर क्रिटिक थे। काम के मामले में उम्र का फर्क कभी भी बीच में नहीं आया, यह उनका बड़प्पन था। मेरे पति रुने जुल लारसन से भी उनका घनिष्ठ संबंध था, हर महत्वपूर्ण चीज करने से पहले रुने से बात कर लेते थे। रुने हमारे आर्ट क्रिटिक थे और सारी व्यावहारिक समस्याएं हल करते थे।
रजा साहब को अच्छा खाना बहुत पसंद था। पर दाल-चावल-रोटी आलू की सब्जी में उनकी जान अटकी रहती थी। मैं हफ्ते में एक बार इंडियन वेज खाना बनाकर भेजती थी, उनके लिए, उनके दोस्तों के लिए। एक दिन बड़ा मजा आया, एक बहुत मशहूर फ्रेंच लेखिका से उन्होंने मुझे मिलाया। उन्हें मालूम नहीं था कि मैं भी आर्टिस्ट हूं तो वह कहने लगीं, ओ तो तुम रजा की कुक हो? मेरे लिए भी खाना बनाओगी!
एक बात याद आ गई। मेरे घरवालों ने रजा साहब से कहा रुने से जाकर मिलें और वो क्या सोचते हैं वह बताएं (शादी से पहले)। मुझे एकदम याद है रजा साहब रुने के घर के दरवाजे के बाहर खड़े थे। इतना नर्वस मैंने उन्हें कभी नहीं देखा। हाथ बरफ जैसे ठंडे। कहने लगे, अगर रुने मुझे तुम्हारे लिए ठीक न लगा तो क्या होगा। मैंने कहा, मुझ पर विश्वास रखिए। शायद उस रात वे सोये भी नहीं थे।
रजा साहब एक सच्चे कलाकार थे, जिंदगी की हर छोटी चीज को जीने का प्रयास करते थे। उसका आनंद लेते थे। हर व्यक्ति में कमियां होती हैं वैसे ही रजा साहब की भी अपनी कमियां व कमजोरियां थीं और वो भी मुझे क्या नहीं करना चाहिए, वह सिखा गईं।
मैं कहती थी कि रजा साहब आप मेरे एंजल गार्डियन हैं, तो साल 2000 से वे कहते थे कि अब अपने रोल बदल गए हैं! आप मेरी एंजल गार्डियन हैं! मेरे रजा साहब, मेरे 1984 से 2010 तक। तो जो मैं कहती हूं- लिखती हूं वह यहां खत्म हो जाता है। जिंदगी में ऐसी पूर्ण कमिटेड व अनकॉम्प्रोमाइज्ड फ्रेंडशिप मेरे हिस्से में आई, इसके लिए मैं जिंदगी की बहुत-बहुत आभारी हूं।