कल्पना की जाए कि यदि शिवसेना के नेता और राज्यसभा सांसद संजय राऊत स्वस्थ होते तो वह महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजित पवार के बेटे पार्थ पवार के कथित जमीन घोटाले पर मुंबई से दिल्ली तक विपक्ष की आवाज को बुलंद कर रहे होते. उन्होंने महाराष्ट्र सरकार को हर तरह से कठघरे में खड़ा किया होता. दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) नीत केंद्र सरकार को मुश्किल में डालने का प्रयास किया होता. मगर इतना बड़ा मामला हाथ लगने के बाद भी विपक्ष के तेवर उतने आक्रामक नहीं हैं, जितने एक व्यक्ति के बयानों से हो सकते थे.
यही कारण है कि महागठबंधन के अनेक नेता इन दिनों सुकून की जिंदगी जीते हुए राऊत का उपहास बना रहे हैं. किंतु सबसे अधिक चिंताजनक स्थिति विपक्षी दलों की है, जो पिछले पांच साल में बयानबाजी के लिए राऊत के समकक्ष कोई नेता तैयार नहीं कर पाए. कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(शरद पवार) गुट अपने शीर्ष नेताओं के भरोसे हैं, जो किन्हीं कारणवश संयमित रहते हैं.
शिवसेना(ठाकरे गुट) में विधान परिषद में विपक्ष के नेता अंबादास दानवे अपना कद ऊंचा करने का भरसक प्रयास कर रहे हैं, लेकिन उनकी पार्टी का आलाकमान उन्हें शिवसैनिक की छवि से बाहर आने नहीं दे रहा है. पार्टी में कुछ कोशिश महिला नेता सुषमा अंधारे भी करती रहती हैं, लेकिन उन्हें अपेक्षित महत्व नहीं मिलता है.
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, फिर डिजिटल मीडिया का प्रभाव बढ़ने से राजनीतिक संगठनों में वाचालों और जानकारों का महत्व बढ़ा है. दोनों योग्यता वाले व्यक्तियों को सभी दल अग्रिम मोर्चे पर खड़ा कर अपनी खुद की स्थिति को मजबूत बनाते हैं. कुछ मामलों में अच्छे परिणाम और कुछ में गलतियां-गड़बड़ियां हो जाती हैं. फिर भी आवश्यकता बनी रहती है.
शिवसेना नेता राऊत पत्रकारिता की पृष्ठभूमि के साथ तार्किक स्तर पर मुकाबले की क्षमता रखते हैं. वह वर्षों से शिवसेना के मुखपत्र के प्रधान संपादक होने के बावजूद अनेक दलों के नेताओं से सीधे संबंध रखते हैं. उनकी बहुमुखी प्रतिभा के चलते ही शिवसेना ने उन्हें राज्यसभा भेजा. वह चार बार संसद के ऊपरी सदन में पहुंच चुके हैं.
जिसका परिणाम यह है कि दिल्ली की आबोहवा का उन्हें अच्छे से अंदाज है. वहां के दोस्त और दुश्मनों का उन्हें अंदाज है. वर्ष 2019 में विधानसभा चुनाव के बाद जब भाजपा के साथ शिवसेना की सरकार बनने का रास्ता बंद हुआ, तब उन्होंने भगवा दलों के विरोधियों के साथ अपने निजी संबंधों का लाभ लेकर महाराष्ट्र में एक नई सरकार का प्रयोग किया.
हमेशा आमने-सामने रहने वाले दल एक साथ बैठ सरकार चलाने लगे. महाविकास आघाड़ी(मविआ) के रूप में नई गठबंधन सरकार ने कोरोना महामारी का सामना किया. हालांकि शिवसेना का विघटन होने के कारण उसका पतन हो गया. किंतु सरकार बनने से लेकर गिरने और विपक्ष में बैठने से लोकसभा-विधानसभा चुनाव तक मविआ की धुरी पर सांसद राऊत ही रहे.
उन्होंने लगातार राज्य और केंद्र सरकार की नीतियों की आलोचना कर विपक्ष की धार को तीखा किया. उन्होंने गठबंधन की खातिर कांग्रेस नेता राहुल गांधी की हर योजना का समर्थन किया. यहां तक कि राहुल गांधी की आलोचना को भी उन्होंने अच्छे से निपटाया. यही बात राकांपा नेताओं के लिए भी की. यह कार्य कांग्रेस तथा राकांपा के नेताओं के लिए संभव नहीं था.
अब अचानक ही वह स्वास्थ्य कारणों के चलते राजनीति के परिदृश्य से गायब हैं. वह भी ऐसे समय में जब स्थानीय निकाय चुनावों के दौरान मविआ को उनकी नितांत आवश्यकता है. मगर गठबंधन ने उन पर इतनी निर्भरता दिखाई कि कभी उनका विकल्प सोचा नहीं गया. संजय राऊत की अनुपस्थिति मविआ के लिए जहां परेशानी का कारण है,
वहीं नीतेश राणे समेत महागठबंधन के अनेक नेता अपने बयानों के लिए जगह बनाते घूम रहे हैं. अन्यथा राऊत के एक बयान का जवाब सत्ता पक्ष के कई नेताओं को दिनभर का सहारा बन जाता था. किंतु विपक्ष के समक्ष अनुपस्थिति रणनीतिक तौर पर भी मुश्किलें पैदा करने वाली है. राऊत की भूमिका मीडिया में बने रहने के अलावा बंद कमरे से लेकर परदे के पीछे तक है.
स्थानीय निकाय चुनावों में कांग्रेस और राकांपा जैसे महत्वाकांक्षी दल पहले ही अकेले चुनाव लड़ने की योजनाओं पर विचार करते दिख जाते हैं. महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना(मनसे) के पास आने से उनकी स्थिति अधिक चौकन्नी हो गई है. शिवसेना ठाकरे गुट में हर योजना की प्राथमिक तैयारी से अंतिम रूप राऊत के जिम्मे ही रहता है, जो मविआ के अन्य किसी घटक दल के नेता के लिए संभव नहीं दिखता है.
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष के कथन को अधिक महत्व नहीं मिलता है. वहीं राकांपा(शरद पवार) गुट के प्रदेश अध्यक्ष की अभी पहचान बनना बाकी है. उनसे अधिक पार्टी की सांसद सुप्रिया सुले दिख और बोल जाती हैं. संजय राऊत की अनुपस्थिति स्वास्थ्य कारणों की अपरिहार्यता है,
लेकिन इसका संकेत यह भी है कि पिछले पांच साल से अधिक समय में तीनों दलों के कुछ नेता भी परस्पर सामंजस्य स्थापित करने के लायक संबंध नहीं बना सके. गठबंधन राऊत के बनाए रिश्तों पर चलता रहा. उसमें स्वाभाविक तालमेल की स्थितियां नहीं बनीं. यहां तक कि कोई नेता ऐसा भी तैयार नहीं हो पाया, जो सत्ताधारियों को रोज आंख दिखा पाए.
फिलहाल राऊत तीन माह तक स्वास्थ्य लाभ लेंगे. उन्हें चिकित्सकों ने सार्वजनिक जीवन से दूर रहने की सलाह दी है. मगर मविआ को अपनी चिकित्सा खुद करनी होगी, क्योंकि आगामी चुनावों में आराम से काम नहीं होगा. रणनीतिक स्तर पर मुकाबला राजनीतिक परिपक्वता के साथ करना होगा. इतना तय है कि संजय राऊत का विकल्प इतनी जल्दी तैयार नहीं हो पाएगा.
बशीर बद्र के शब्दों में कहा जाए तो
अगर तलाश करूं कोई मिल ही जाएगा,
मगर तुम्हारी तरह कौन मुझ को चाहेगा.