बारिश का मौसम शुरू होते ही पहाड़ी पर्यटन क्षेत्रों से सड़क दुर्घटनाओं से लेकर लोगों के नदी में बह जाने तक की खबरें आने लगी हैं. बारिश जैसे-जैसे तीव्र होगी, दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ेगी. ऐसा हर साल होता है. जरूरत यह समझने की है कि ऐसा क्यों होता है? यदि हम कारण समझ जाएं तो निश्चित ही दुर्घटनाओं में काफी कमी आ सकती है लेकिन समस्या यह है कि हम समझने की कोशिश नहीं करते. मानव मन आशावादी होता है और हर व्यक्ति को यही लगता है कि दुर्घटना दूसरों के साथ होगी, हम तो समझदार हैं, हमारे साथ नहीं होगी!
यही आशावाद व्यक्ति को कई बार दुस्साहसी बना देता है और जान चली जाती है. उदाहरण के लिए लोग तलछट नदी के बीच पत्थरों पर जाकर फोटो खिंचवाना चाहते हैं. लेकिन कई बार ऐसा होता है कि देखते ही देखते नदी का बहाव खतरनाक स्तर पर पहुंच जाता है. इतना वक्त ही नहीं मिलता कि लोग वहां से निकल सकें या सहायता पहुंच सके. नतीजा होता है कि हर साल बहुत से लोग नदियों की चपेट में आकर मारे जाते हैं. किसे पता नहीं होता कि बारिश का मौसम है और कहीं दूर भी बारिश हो रही है तो नदी में बाढ़ आ सकती है. हर किसी को पता होता है लेकिन लोगों को लगता है कि जब तक पानी आएगा, तब तक वे किनारे पर पहुंच जाएंगे लेकिन ऐसा हो नहीं पाता है.
इसी तरह यदि कहीं भूस्खलन होना है तो पहाड़ पहले से इसके संकेत देते हैं. पहले छोटे पत्थर लुढ़कने शुरू होते हैं और फिर उनकी तीव्रता बढ़ती जाती है. अंतिम रूप से भूस्खलन होने में दस-पंद्रह मिनट से लेकर कई घंटे तक लगते हैं. यदि शुरुआती दौर में ही लोग उस सड़क से आगे निकलने की होड़ न मचाएं और वापस लौट जाएं तो दुर्घटना से काफी हद तक बचा जा सकता है लेकिन हर वाहन चालक चाहता है कि छोटे पत्थरों से बचकर किसी तरह आगे निकल जाए. कुछ वाहन चालक आगे निकल भी जाते हैं लेकिन सब इतने भाग्यवाले नहीं होते.
चलिए यह मान लेते हैं कि इस तरह की घटनाओं में आकलन की चूक होती होगी लेकिन जो दुर्घटनाएं सड़क पर हो रही हैं, उसका क्या? अभी हिमाचल और उत्तराखंड में वाहनों के खाई में गिरने की कई घटनाएं हुईं जबकि उन दुर्घटना स्थलों पर सड़क धंसी भी नहीं थी. जाहिर सी बात है कि इस तरह की दुर्घटना के दो महत्वपूर्ण कारण हो सकते हैं. एक तो वाहन की रफ्तार और दूसरा, पहाड़ की प्रवृत्ति को ठीक से न समझ पाना. हमारे पहाड़ों में बारिश के दिनों में सड़कें अत्यंत चिकनी हो जाती हैं यानी फिसलन भरी हो जाती हैं.
फिसलन भरी सड़क पर यदि वाहन चालक ब्रेक दबा दे तो वाहन के फिसलने की आशंका कई गुना बढ़ जाती है. ऐसी स्थिति में वाहन पर से नियंत्रण खत्म हो जाना स्वाभाविक है और वाहन के खाई में गिरने की आशंका पैदा होगी ही! जो वाहन चालक ऐसे क्षेत्रों के रहने वाले हैं, वे तो हर मौसम में पहाड़ की तासीर को समझते हैं. वे जानते हैं कि सुरक्षित रूप से वाहन कैसे चलाना है लेकिन जो लोग मैदानी क्षेत्र से अपने वाहन लेकर वहां पहुंच जाते हैं, उनके पास न अनुभव होता है और न ही सुरक्षा की जानकारी.
ऐसी स्थिति में यदि उनका भावावेग बढ़ जाए तो मुश्किल आएगी ही आएगी. जब मैदानी क्षेत्र में ही लोग सड़क सुरक्षा का खयाल नहीं रखते तो वे पहाड़ में पहुंचकर कैसे सुधर जाएंगे? हम आप सड़क से गुजरते हुए वाहनों की असंतुलित रफ्तार का खौफनाक मंजर हर रोज देखते हैं. बिना हेलमेट के दुपहिया वाहन चालकों को देखते हैं और बिना बेल्ट के ही कार चलाते चालकों को भी देखते हैं. पीछे की सीट पर तो शायद ही कभी कोई सीट बेल्ट लगाए हुए दिखता है. यह लापरवाही, रफ्तार का जुनून और अति आत्मविश्वास जानलेवा बन जाता है. यह तो आपको पता ही होगा कि दुनिया में भारत से ज्यादा सड़क दुर्घटनाएं कहीं और नहीं होतीं.
भारत में हर साल लगभग 4 लाख 80 हजार सड़क दुर्घटनाएं होती हैं, जिनमें 1 लाख 80 हजार लोगों की मौत हो जाती है और लगभग 4 लाख लोग गंभीर रूप से घायल होते हैं. मरने और घायल होने वालों में सबसे ज्यादा हमारे युवा होते हैं. सरकार ने लक्ष्य रखा है कि 2030 तक सड़क दुर्घटनाएं आधी हो जानी चाहिए. लेकिन सवाल है कि यह कैसे होगा? सख्ती बरतने से अस्थायी नतीजे आ सकते हैं लेकिन स्थायी नतीजों के लिए सरकार के साथ-साथ हम सभी को निजी स्तर पर भी प्रयास करने होंगे.