Raj and Uddhav Thackeray: महाराष्ट्र में ठाकरे बंधु अब एक हो चुके हैं. ढोल-ताशे बज उठे हैं. शिवसैनिकों और मनसैनिकों में नया चैतन्य जागृत हो चुका है. इस मनोमिलन का श्रेय मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को मिल गया है. सब कुछ होने के बाद नजरें आगे की रूपरेखा पर हैं. पारिवारिक विवाद से घर के अंदर से अलग हुए दो चचेरे भाई मंच से एक होने की घोषणा कर चुके हैं. किंतु इसे राजनीतिक या परिवार का आंतरिक मामला समझा जाए, यह बड़ा सवाल है. यदि घर-परिवार का मामला था तो मंच पर समेट कर परिवार की एकता का प्रदर्शन क्यों किया गया?
यहां तक कि दोनों ठाकरे अपने-अपने घर से अलग-अलग कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे. दूसरी ओर यह मराठी भाषा की अस्मिता का सवाल था तो मंच पर भाषा पर कम और राजनीति पर अधिक बात हुई. दरअसल इसमें बीस साल पुराने मनमुटाव को साल दर साल समझना आवश्यक है, जब शिवसेना प्रमुख बालासाहब ठाकरे के समक्ष राज ठाकरे न केवल पार्टी से अलग हुए, बल्कि अपनी अलग पार्टी बनाई.
तब यह साफ था कि उनकी नाराजगी सीधे तौर पर उद्धव ठाकरे को पार्टी में प्रमुख स्थान दिए जाने को लेकर थी. जिसका जवाब उन्होंने नई पार्टी के गठन और कुछ विधायकों की जीत के साथ दिया था. उन्होंने अनेक चुनावों में शिवसेना के प्रत्याशियों को पराजित करने में अहम भूमिका निभाई.
मगर कुछ साल बाद राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना(मनसे) का राजनीतिक ग्राफ गिरने लगा और उद्धव ठाकरे को महाविकास आघाड़ी से मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिल गया. करीब बीस साल के समय में अनेक लोकसभा, विधानसभा और महानगर पालिकाओं के चुनाव हुए, जिनमें मनसे ने शिवसेना के खिलाफ केवल चुनाव ही नहीं लड़ा,
बल्कि राज ठाकरे ने उद्धव ठाकरे के खिलाफ तीखी बयानबाजी भी की. वर्ष 2014, 2019 और 2024 के चुनावों के बाद भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) की अकेली ताकत बढ़ने से राज्य के राजनीतिक गलियारों में चिंता के बादल गहराने लगे. इसी परेशानी के दौर में महाविकास आघाड़ी का जन्म हुआ और उद्धव ठाकरे ने उस पद को पा लिया, जिसके लिए शिवसेना के शीर्ष नेतृत्व ने कभी संघर्ष नहीं किया.
अब वर्ष 2025 के वर्तमान दौर में टूट के बाद बना शिवसेना का उद्धव ठाकरे गुट और मनसे दोनों अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर परेशान हैं. जिसे दूर करने के लिए कोई तो रास्ता ढूंढ़ना था. माना जा रहा है कि वह अब मिल गया है. किंतु पिछला सवाल अभी बाकी ही है कि यह मेलजोल पारिवारिक था या राजनीतिक है.
यदि इसे राजनीति से जुड़ा माना जाए तो दोनों दलों के तालमेल का आधार कहीं निर्धारित होना चाहिए था. साथ रहने और चुनाव लड़ने की घोषणा मात्र से सारे समीकरण मनमर्जी के नहीं बन जाते हैं. राजनीति के लिए जमीनी आधार की आवश्यकता होती है, जो फिलहाल दोनों दलों का कमजोर हो चुका है. इसलिए यह हंसी-खुशी का माहौल तभी आगे तक चल सकता है,
जब पूर्ण रूप से एकीकरण हो या फिर गठबंधन की सीमाएं तय हों. फिलहाल कुछ उत्साह और उमंग के आगे कुछ दिख नहीं रहा है. एलबम जैसा फोटो सेशन यादगार बन गया है, लेकिन एक-दूसरे के लिए कैसे मददगार बनेंगे, यह तय नहीं है. आखिर घर के अंदर की लड़ाई ही तो मंच पर सिमटाई गई है.