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विजय दर्डा का ब्लॉग: इस घटनाक्रम से घुटन महसूस कर रहा हूं मैं

By विजय दर्डा | Updated: June 27, 2022 09:38 IST

अभी हाल ही में राज्यसभा से गुलाम नबी आजाद की विदाई के वक्त गौरवपूर्ण वाक्यों का उपयोग करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रो पड़े थे। सम्मान, प्रेम और सहयोग के ऐसे और भी ढेर सारे उदाहरण हैं। लेकिन बदलते वक्त में राजनीति के रिश्ते भी क्षतिग्रस्त हो रहे हैं। जहां तक पार्टी छोड़ने और सत्ता के लिए सियासत की बात है तो यह कोई पहला मौका नहीं है।

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ठळक मुद्दे1971 में पाकिस्तान पर जीत के बाद इंदिरा गांधी को अटलजी ने दुर्गा कह कर संबोधित किया था।कश्मीर को लेकर 1994 में पाकिस्तान ने जब संयुक्त राष्ट्र में भारत को घेरने की कोशिश की तो तत्कालीन पीएम नरसिम्हा राव ने विपक्ष के नेता अटलजी को जिनेवा भेजा।

महाराष्ट्र की राजनीति में जो कुछ भी चल रहा है, उस पर पूरे देश की नजर टिकी हुई है। दूसरे राज्यों के मेरे साथी मुझसे पूछ रहे हैं कि हमारा असर आप लोगों पर कैसे हो गया? यह संकट किस मोड़ पर खत्म होगा और इसके परिणाम क्या होंगे? क्या उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री की कुर्सी को अपने पास रख पाने में सफल होंगे या फिर कुर्सी चली जाएगी? क्या देवेंद्र फडणवीस फिर से सत्ता में लौट रहे हैं? एकनाथ शिंदे की राजनीति का क्या होगा? क्या शिवसेना टूट जाएगी? पवार साहब का रोल क्या है? इन सब में कांग्रेस कहां है?

राजनीति की पेंच दुश्मनी के कगार पर आकर खड़ी है जिससे लोकतंत्र में विश्वास रखने वाला हर व्यक्ति यह सवाल पूछ रहा है कि महाराष्ट्र की यह संस्कृति है क्या? सवाल पूछने वाले अपने मित्रों से मैं यह कैसे बताऊं कि महाराष्ट्र में जो भी सियासी दांव-पेंच चल रहा है, उससे मैं बहुत आहत हूं। घुटन महसूस कर रहा हूं क्योंकि महाराष्ट्र की राजनीति का चेहरा ऐसा पहले कभी नहीं था। महाराष्ट्र की राजनीति प्यार और सौहार्द्र से परिपूर्ण रही है। मेरे बाबूजी ज्येष्ठ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जवाहरलाल दर्डा महाराष्ट्र की राजनीति के एक प्रमुख स्तंभ थे इसलिए मैंने बचपन से ही यहां की राजनीति को करीब से देखा। 

विरोधी नेताओं को भी मैं बाबूजी के साथ हंसते-खिलखिलाते देखता था। मैंने कई मौकों पर महसूस किया कि उस दौर में एक-दूसरे के कट्टर विरोधी नेताओं के बीच भी निजी रिश्ते बहुत मजबूत हुआ करते थे। एक-दूसरे के सुख-दुख बांटते थे। सदन से बाहर निकलने के बाद मतभिन्नता को दूर रखकर शाम साथ बिताते थे और एकसाथ खाना खाते थे। महाराष्ट्र की यह राजनीतिक परंपरा रही है। इस परंपरा का पालन करने वाले बहुत से राजनेता आज भी हैं। मैं निजी तौर पर आज भी इस परंपरा का सम्मान करता हूं और उसी के अनुरूप व्यवहार भी करता हूं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि महाराष्ट्र की राजनीतिक परंपरा को सत्ता की मार-काट ने क्षतिग्रस्त कर दिया है। 

आज राजनेता एक-दूसरे के खून के प्यासे हुए जा रहे हैं। वैचारिकता तो खैर ताक पर रख ही दी गई है। मैं करीब पचास-पचपन साल से राजनीति को बहुत करीब से देख रहा हूं। 18 वर्षों तक भारतीय संसद के भीतर भी बैठा हूं। मैंने पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, मोरारजी भाई, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, पीवी नरसिम्हा राव, एचडी देवेगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह का भी पार्लियामेंट जाना समझा और देखा है। राष्ट्रीय स्तर पर भी एक-दूसरे के सम्मान की परंपरा रही है। 

संसद में भले ही एक-दूसरे को छील कर रख देते थे लेकिन सदन से बाहर रिश्ते प्रेम से परिपूर्ण थे। कठोर आलोचना में शालीनता खोने की घटनाएं कम ही होती थीं। एक बार देवकांत बरुआ ने पंडितजी के लिए अपमानजनक शब्द का उपयोग कर दिया था। पंडितजी ने उन्हें चाय पर बुलाया और कहा कि कई बार आप उत्तेजित हो जाते हैं। पंडित नेहरू के निधन के बाद बरुआ जब उन्हें श्रद्धांजलि देने पहुंचे तो तीन बार प्रणाम किया। प्रसिद्ध पत्रकार चलपति राव ने उनसे तीन बार प्रणाम का कारण पूछा तो बरुआ ने कहा कि पहला प्रणाम महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को, दूसरा प्रणाम लोकतंत्र को जीवित रखने वाले सेनापति को और तीसरा प्रणाम मेरी उस गलती के लिए जिसके लिए उनके सामने माफी मांगने की मेरी हिम्मत नहीं थी।

अटलजी पंडितजी के प्रखर आलोचक थे लेकिन चुनाव हारने के बाद पंडितजी उन्हें संसद में लेकर आए। अटलजी उन पर तीखे वार करते थे लेकिन उसमें भी शालीनता थी। लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था होती थी। मैं आपको एक प्रसंग बताता हूं। वर्ष 1977 में जनता पार्टी की सरकार के समय अटलजी विदेश मंत्री बने। साउथ ब्लॉक में लगा नेहरूजी का तैल चित्र किसी ने हटा दिया। एक दिन अटलजी वहां से गुजरे और उन्होंने पूछा कि पंडितजी का चित्र कहां है? किसी ने जवाब तो नहीं दिया लेकिन अगले ही दिन वहां तैल चित्र फिर से लग गया।

1971 में पाकिस्तान पर जीत के बाद इंदिरा गांधी को अटलजी ने दुर्गा कह कर संबोधित किया था। कश्मीर को लेकर 1994 में पाकिस्तान ने जब संयुक्त राष्ट्र में भारत को घेरने की कोशिश की तो तत्कालीन पीएम नरसिम्हा राव ने विपक्ष के नेता अटलजी को जिनेवा भेजा। भारतीय राजनीति में प्रेम का एक और किस्सा सुनाता हूं। 1988 में अटल बिहारी वाजपेयी किडनी की गंभीर बीमारी से जूझ रहे थे। उपचार के लिए अमेरिका जाना था लेकिन पैसा न होने के कारण नहीं जा पा रहे थे।

इस बात की जानकारी राजीव गांधी को लगी तो उन्होंने अटलजी को संयुक्त राष्ट्र में न्यूयॉर्क जाने वाले प्रतिनिधिमंडल में शामिल कराया और कहा कि उपचार करवा कर लौटिएगा। राजीवजी के निधन के बाद अटलजी ने स्वयं यह किस्सा सुनाया था और कहा था कि राजीवजी न होते तो मैं जिंदा नहीं रहता। अमेरिका में उपचार के दौरान अटलजी ने अपनी बहुचर्चित कविता ‘मौत से ठन गई’ लिखी थी। 

अभी हाल ही में राज्यसभा से गुलाम नबी आजाद की विदाई के वक्त गौरवपूर्ण वाक्यों का उपयोग करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रो पड़े थे। सम्मान, प्रेम और सहयोग के ऐसे और भी ढेर सारे उदाहरण हैं। लेकिन बदलते वक्त में राजनीति के रिश्ते भी क्षतिग्रस्त हो रहे हैं। जहां तक पार्टी छोड़ने और सत्ता के लिए सियासत की बात है तो यह कोई पहला मौका नहीं है। वसंत दादा पाटिल की सरकार में शरद पवार मंत्री थे लेकिन उन्होंने वसंत दादा को रातोंरात छोड़ दिया और सरकार गिर गई।

पवार जिन पीए संगमा के साथ कांग्रेस से बाहर हुए थे, वही संगमा उन्हें छोड़कर चले गए। बहुत से लोगों ने अलग-अलग पार्टियां छोड़ीं और दल बदले। जहां तक शिवसेना का सवाल है तो 1991 में छगन भुजबल और 2005 में नारायण राणो निकले या 2005 में जब राज ठाकरे निकले तब पार्टी सत्ता में नहीं थी लेकिन एकनाथ शिंदे के साथ जब ढेर सारे लोगों ने पार्टी छोड़ी तब शिवसेना सत्ता में है। इस वक्त कटुता बहुत देखने को मिल रही है।

भाषा ऐसी बोली जा रही है जैसे सदियों की दुश्मनी हो। राजनीति की जंग में भी शालीनता और इंसानियत बहुत जरूरी है। इस वक्त सबसे बड़ा सवाल यह है कि लोकतंत्र की आत्मा कैसे बची रहेगी...! यह सवाल मुझे परेशान कर रहा है। मेरे जैसे लोग निश्चय ही घुटन महसूस कर रहे हैं।

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