Nagpur Farmers Protest: किसानों के साथ संघर्ष कर विदर्भ के किसान नेता बच्चू कडू काफी संतुष्ट दिख रहे हैं. उन्होंने अपने आंदोलन के माध्यम से किसानों के ऋण को माफ करवाने में सफलता प्राप्त कर ली है. वहीं दूसरी ओर शनिवार को महाविकास आघाड़ी(मविआ) की ओर से मतदाता सूचियों में गड़बड़ियों के नाम पर आंदोलन किया जाएगा. इसमें मविआ के घटकों के साथ महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना(मनसे) भी शामिल होने जा रही है और कुछ हद तक देखा जाए तो मनसे ने भीड़ जुटाने से लेकर नेतृत्व करने का मन बना लिया है.
तभी पार्टी के नेता राज ठाकरे ने लोगों से आंदोलन में शामिल होने का आह्वान कुछ इस अंदाज में किया है कि यदि कर्मचारी को आंदोलन में शामिल होने की अनुमति न मिले तो उसे अपने वरिष्ठ को पीटकर आंदोलन में आ जाना चाहिए. इससे आंदोलन की गंभीरता और आक्रामकता को बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है.
मविआ के दो अन्य घटक कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(राकांपा पवार गुट) शांति के साथ अपने मन की मुराद पूरी करना चाह रहे हैं. वहीं शिवसेना ठाकरे गुट मनसे की अगुवाई में ही खुश दिखाई दे रहा है. इन्हीं के बीच मराठा आरक्षण के लिए आंदोलन हुआ. बंजारा समाज और धनगर भी अपनी मांगों के लिए आंदोलन करते जा रहे हैं. अन्य पिछड़ा वर्ग(ओबीसी) का अपना संघर्ष चल रहा है.
किंतु मराठा आरक्षण को छोड़ ज्यादातर आंदोलन में साफ राजनीतिक प्रभाव दिखाई दे रहा है. किसी न किसी दल का कोई नेता अपने एजेंडे पर आंदोलन को चला कर जन आंदोलन को तैयार करने पर उतारू है. साफ है कि राजनीतिक कमी-कमजोरियों को समाज-वर्ग का सहारा लेकर छिपाया जा सकता है.
किंतु चुनावी राजनीति में हर आंदोलन सहायक नहीं हो पाता है, क्योंकि उसका अपना समय होता है और वह बदल भी जाता है. अपनी आक्रामक छवि के लिए पहचान रखने वाले पूर्व मंत्री और विधायक कडू अपने प्रहार जनशक्ति संगठन के माध्यम से अनेक समस्याओं के लिए आंदोलन करते रहते हैं. वह दिव्यांगों की समस्याओं पर भी संघर्ष कर चुके हैं.
किसानों के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं. अपनी अनेक लड़ाइयों के बावजूद वह अपनी स्वतंत्र सामाजिक छवि को तैयार करने में विफल हैं. पिछला विधानसभा चुनाव हारने के बाद से उन्होंने राजनीति से जुड़े होने के बावजूद गैरराजनीतिक छवि को बड़ा करने के लिए किसान आंदोलन खड़ा किया. काफी हंगामे और अदालत के हस्तक्षेप के बाद उन्हें अपने संघर्ष को विराम देना पड़ा.
सरकार की ओर से उनकी मांगें मानने का दावा किया गया. किंतु आंदोलन की समाप्ति के अंदाज पर सवाल उठने आरंभ हो गए हैं. दूसरी ओर आंदोलन की सफलता उन्हें कितना राजनीतिक लाभ दे पाएगी, इस पर भी शक और सवाल बाकी हैं. इसके अलावा बंजारा और धनगर समाज अपनी मांगों को लेकर संघर्षरत हैं.
उनके आंदोलनों में मंत्री पंकजा मुंडे, अतुल सावे, गिरीश महाजन, संजय राठौड़, विधान परिषद के उपसभापति राम शिंदे, धनंजय मुंडे आदि सक्रिय हैं. इसी प्रकार पूरे ओबीसी समाज के आरक्षण को लेकर मंत्री छगन भुजबल मैदान में हैं. उधर, मराठा आरक्षण आंदोलन को लेकर उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे, राधाकृष्ण विखे पाटिल, शिवेंद्र राजे भोसले मोर्चा संभाल रहे थे.
कहीं धरना, कहीं प्रदर्शन और कहीं भूख हड़ताल सब कुछ नजर आया. सभी स्थानों पर मंत्री, सांसद और विधायक सहित अनेक स्तर के नेता देखे गए. स्पष्ट है कि आंदोलन का सहारा सभी को चाहिए. यदि संघर्ष की चिंगारी दिख रही है तो उसे भड़का कर कम से कम अपनी राजनीति पर रोशनी तो डाली ही जा सकती है.
बीते कुछ सालों में चुनावों ने अनेक अप्रत्याशित परिणामों को दिया है. कई स्थापित नेताओं को पराजय का सामना करना पड़ा है. एक ऊंचाई छूने के बाद दोबारा संघर्ष से ऊंचाई को छूने के लिए अब नए रास्तों को ढूंढ़ने के लिए मजबूर होना पड़ा है. इसी में नया फार्मूला किसी छोटे आंदोलन को बड़ा बनाकर अपनी कमजोरियों को छिपाने का तैयार हो चुका है,
जो महंगाई, बेरोजगारी, अपराध, किसान, समाज, आरक्षण से लेकर मतदाता सूचियों की गड़बड़ियों तक आ चुका है. लोकतंत्र हर एक व्यक्ति को अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने का अवसर देता है. किंतु अवसर स्वाभाविक रूप से सामने आना चाहिए. कृत्रिम रूप से तैयार करने से केवल चर्चाओं का बाजार गर्म होता है.
नतीजा कुछ दिखाई नहीं देता है. मगर राजनीतिक परिस्थितियों की अपरिहार्यता नेताओं को कुछ भी करने के लिए मजबूर कर रही है. आंदोलन में राजनीति की मांग हो या नहीं, मगर नेता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से साथ देने के लिए तैयार हैं. वह बार-बार भूल रहे हैं कि उनकी चुनावी पराजय किसी आंदोलन या समस्या या फिर किसी मांग के पूरा होने का परिणाम नहीं है.
बल्कि वह उनके कार्यकाल की असफलता का नतीजा है. जिसका आइना उन्हें दिखाया गया. अब स्थितियां यह हैं कि कई आंदोलन और उनसे जुड़े अनेक नेता जैसे ही अपनी सफलता का ढिंढोरा पीटते हैं, तभी कहीं से उस पर प्रश्नचिह्न लगने आरंभ हो जाते हैं. उन पर ‘फिक्सिंग’ जैसे आरोप भी लग जाते हैं.
यह उन लोगों के साथ निराशा का विषय है, जिन्होंने आंदोलनों से जुड़कर कोई उम्मीद लगाई थी. उन्हें नेता का सहारा लग रहा था, लेकिन वह बैसाखी साबित होकर अलग होती दिख रही है. इससे स्पष्ट है कि भविष्य में आंदोलन के विषय में संवेदनशीलता के साथ विचार करना होगा. उनका हल राजनीतिक स्तर पर निकाला जा सकता है,
लेकिन उन्हें राजनीति का खिलौना नहीं बनाया जा सकता है. यदि आंदोलन से ठगी के प्रयास परदे के आगे या पीछे हो रहे हैं तो उन्हें रोकना होगा. यह तय है कि इस मानसिक छल का परिणाम नेताओं को ही भुगतना होगा. फिलहाल ठगे आंदोलनकारी कई साल तक चुनाव की राह देखने के अलावा कुछ नहीं कर सकेंगे.