यह तय नहीं हो पा रहा है कि आखिर महाराष्ट्र सरकार अपने मंत्रियों के प्रति बहुत संवेदनशील है या फिर उनके आगे नतमस्तक है. किंतु जिस प्रकार के घटनाक्रम सामने आ रहे हैं, उनसे दोनों परिस्थितियों के अलग बीच का रास्ता निकालने की रणनीति पर चलना अधिक दिख रहा है. ताजा मामले में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(राकांपा) के विवादों से घिरे मंत्री माणिकराव कोकाटे का विभाग बदला जाना है. इसकी सुगबुगाहट काफी दिनों से थी और यह समझा जा रहा था कि बात आई-गई हो गई, लेकिन गुरुवार की रात कृषि मंत्रालय से छुट्टी होने का समाचार मिल गया.
हालांकि नए घटनाक्रम विधानसभा में बैठकर मोबाइल पर रमी खेलने से पहले कोकाटे अपने बयानों के लिए अक्सर चर्चा में रहे हैं. उन्हें किसान से लेकर सरकार तक भिखारी नजर आई है. किंतु उनके बयानों को अपमानजनक न मानते हुए गंभीरता से नहीं लिया गया. यूं भी इस तरह की बयानबाजी राज्य सरकार के लिए नई बात नहीं थी.
मंत्रिमंडल के एक मंत्री नीतेश राणे हर दिन अपने पद की गरिमा को भूलकर बयान देते रहते हैं. जल संसाधन मंत्री गिरीश महाजन, शिक्षा मंत्री दादाजी भुसे, सामाजिक न्याय मंत्री संजय शिरसाट और गृह राज्यमंत्री योगेश कदम अपने-अपने कारणों से विवादों में घिरे हुए हैं, लेकिन कोई वरिष्ठ नेता उनके खिलाफ नहीं बोल रहा है.
पूर्व में बीड़ में हुए सरपंच हत्याकांड के चलते धनंजय मुंडे को हटाना पड़ा था. मगर वह सीधी कार्रवाई भारी दबाव के बीच हुई थी. महाराष्ट्र में एक समय वह भी था, जब 26 नवंबर 2011 को मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के बाद ताज होटल में मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख के निरीक्षण दल में एक फिल्मकार के दिखने के बाद उन्हें अपने पद से हाथ धोना पड़ा था.
उसी दौरान राज्य के गृह मंत्री रहे आरआर पाटील को अपना पद सिर्फ इसलिए छोड़ना पड़ा था, क्योंकि अनौपचारिक बातचीत में मुंबई की घटना को मामूली बता दिया था. इससे पहले भूतपूर्व मुख्यमंत्री शिवाजीराव निलंगेकर और एआर अंतुले का विवादों के चलते इस्तीफा इतिहास में दर्ज है.
बहुत अतीत में न जाएं तो भी महाविकास आघाड़ी की उद्धव ठाकरे सरकार में मंत्री संजय राठौड़ को आत्महत्या के लिए एक युवती के आरोपों के कारण त्यागपत्र देना पड़ा था. यद्यपि बाद में उन्हें उक्त मामले में क्लीन चिट मिल गई थी. इन प्रकरणों के बीच नेताओं की ताजा बेबाक बयानबाजी के प्रति कहीं गंभीरता दिखाई नहीं देती है.
कोकाटे एक ऐसे मंत्री हैं, जिन्होंने गलत-बयानी एक बार नहीं बल्कि अनेक बार की. मगर उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई. शायद इसके पीछे यह भी कारण माना जा सकता है कि चुनाव के समय राकांपा नेता अजित पवार ने कोकाटे के क्षेत्र में प्रचार करते हुए यह कहा था कि यदि वहां के लोग उन्हें जिता देंगे तो उनका मंत्री बनना तय है.
कुछ इसी वादे से वह मंत्री बन गए, लेकिन बार-बार सीमाओं को लांघते रहने वाले नेता भी बन गए. अत: धर्मसंकट यह है कि उन्हें किस मुंह से पद छोड़ने के लिए कहा जाए. उधर, राज्य के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस मंत्रिमंडल की बैठक में स्पष्ट घोषणा करते हैं कि गलत बयानबाजी करने वाले मंत्री को बख्शा नहीं जाएगा. उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी.
इसी प्रकार भाजपा के आलाकमान की ओर से भी समय-समय पर नेताओं के आचरण और बयानों के लिए चेतावनी जारी की गई, लेकिन उसका असर दिखा नहीं है. यह माना जा सकता है कि राज्य में तीन दलों की महागठबंधन सरकार है. तीनों ही दल हर मामले पर अपनी संवेदनशीलता को जाहिर करते रहते हैं, लेकिन बिंदास मंत्रियों के बयानों पर कुछ कहने से कतराते हैं.
उल्टा, दलों के वरिष्ठ नेताओं को सफाई देते हुए घूमना पड़ता है. यह माना जा सकता है कि हर नेता की सरकार में कहीं न कहीं कुछ न कुछ आवश्यकता अवश्य होती है. वह अपने क्षेत्र से लेकर राज्य के मामलों में अपनी भूमिका निभाता रहता है. किंतु क्या सरकार चलाने के लिए इसकी कीमत चुकानी जरूरी होती है? वह भी उस स्थिति में जब महागठबंधन सरकार के पास बहुमत जुटाने की कोई चिंता नहीं है.
एक-दो मंत्रियों को हटाने के बाद भी मंत्री पद की योग्यता रखने वाले नेता-विधायकों की संख्या भी कम नहीं है. फिर भी यदि समस्या बनी रहती है तो उसे विपक्ष के दबाव के आगे न झुकने से अलग नेतृत्व की कमजोरी क्यों न माना जाए? वर्तमान विधानसभा में सत्ता पक्ष के 235 विधायक हैं. जिनमें भाजपा के 132 विधायक हैं, जबकि 41 विधायक राकांपा(अजित पवार गुट) और 57 विधायक शिवसेना शिंदे गुट के पास हैं. तीनों को मिलाकर बनी सरकार में यदि किसी के खिलाफ ठोस या निर्णायक कार्रवाई हो भी जाए तो उससे सरकार के अस्तित्व पर कोई आंच नहीं आ सकती है.
यदि पुरानी सरकारों के अनुभव की नजर से भी देखा जाए तो कार्रवाई की स्थिति में पूर्ववर्ती राज्य सरकारों की सेहत पर अधिक असर नहीं पड़ा था, यहां तक कि मुख्यमंत्री से लेकर गृह मंत्री तक दोनों बदले गए थे. मगर नए दौर में मंत्री कोकाटे का केवल विभाग ही बदला गया और पूर्व मंत्री मुंडे की वापसी की चर्चा आरंभ हो गई,
जो यह साबित करती है कि विवाद को लेकर विरोध के स्वर धीमे होते ही परिस्थितियां सामान्य बनाने की तैयारी आरंभ हो चली है. सरकार बनने से पहले भ्रष्टाचार और आचरण को लेकर सामान्य अपेक्षा रहती है, लेकिन सत्ता पाते ही दोनों मामले गौण हो जाते हैं. चाहे किसी मंत्री के कमरे में नोटों का बैग ही क्यों न दिखे, उससे सवाल- जवाब नहीं होता है.
गठबंधन सरकार का बहाना बनाकर संबंधित दल से विचार करने की अपेक्षा व्यक्त कर दी जाती है, जो यह सिद्ध करती है कि धृष्ट मंत्रियों के आगे सरकार विवश है. उसे मालूम है कि कुछ दिन कान बंद कर लेने से अपने आप शांति हो ही जाती है. मगर वह खामोशी जनमानस के अशांत सवालों का उत्तर नहीं दे पाती है.