यह बात बहुत दिन पुरानी नहीं, बल्कि बीते सोमवार की ही है, जब मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने विधानमंडल के कामकाज को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए कार्यरत 30 संसदीय समितियों के कामकाज का शुभारंभ करते हुए कहा था कि ऐसा कुछ करें, जिससे इन समितियों की बदनामी न हो. कुछ साल पहले समितियों के अध्यक्ष और सदस्य जहां भी गए, वहां लोग डर जाया करते थे. ऐसी भी शिकायतें थीं कि समितियों के माध्यम से ब्लैकमेल किया जा रहा था. धुलिया के गेस्ट हाउस में करोड़ों रुपए की नगदी मिलने के बाद अब मुख्यमंत्री के संबोधन को चिंता समझा जाए या फिर आशंका?
मगर राजनीति और राजनीतिकों को पास से जानने वालों के लिए यह बिल्कुल आश्चर्यजनक स्थिति नहीं है. पक्ष-विपक्ष भले ही एक-दूसरे पर कितना कीचड़ उछालें, मगर सच दोनों ही पक्षों को ज्ञात है. सभी कड़वी सच्चाई के बीच से ही गुजरे हैं. इसलिए मौका और दस्तूर आलोचना का है, जो हो रही है. मजबूरी में सरकार जांच की एक ऐसी घोषणा कर चुकी है, जिससे पहले प्रमाण, गवाह और तथ्य सभी सामने हैं.
फिर भी सच का पता लगाने के लिए विशेष जांच समिति बन रही है, जो वास्तविकता को सामने लाएगी. देश में विधायिका से लेकर कार्यपालिका तक और न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के घर नगदी में हुए अग्निकांड के बाद लोकतंत्र के सभी स्तंभ सवालों के घेरे में हैं. हालांकि आम आदमी के पास भ्रष्टाचार को लेकर कोई सवाल नहीं है, फिर भी उसे नई-नई घटनाएं चौंकाती हैं.
किंतु भविष्य में किसी कार्रवाई को लेकर कोई उम्मीद नहीं जगाती हैं. जब राजनीति की बात आती है तो उसमें पैसा ठीक उसी तरह का ‘पूंजी निवेश’ बन चुका है, जिस तरह उसका व्यापार और उद्योग में समझा जाता है. राजनीति में आने और पद पाने के पहले जेब को टटोलना आवश्यक होता है. इसीलिए जमीनी कार्यकर्ता जमीन पर रहते हैं और ‘निवेशक’ लगातार ऊंची जगह पाते चले जाते हैं.
सब जानते हैं कि यदि चुनावों में फैसले करोड़ों रुपए के वारे-न्यारे के बाद होंगे तो भविष्य में ‘निवेशक’ अपनी पूंजी को कहीं से तो वापस पाना चाहेगा. समय बीतने पर ब्याज की भी आवश्यकता होगी. साथ ही किसी पद को पाने के बाद ‘रिकरिंग एक्सपेंडीचर’(आवर्ती व्यय) को भी निकालना चुनौती होगी.
इस स्थिति में धुलिया के ‘गेस्ट हाउस’ में नगदी मिलना आश्चर्यजनक न होकर उसका शोरगुल वर्तमान समय में गंभीर चिंता का विषय है. दूसरी ओर उसकी जांच और उसके परिणामों में कोई उम्मीद लगाना व्यर्थ है. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट के अनुसार महाराष्ट्र में वर्ष 2009 में चुनाव जीतने वाले 287 विधायकों की धन-संपत्ति के आकलन में 186 विधायक यानी कुल संख्या के 65 प्रतिशत करोड़पति थे. यह संख्या वर्ष 2014 में 253 और 88 प्रतिशत तक पहुंच गई.
बाद में इसमें कमी आने के कोई आसार नजर नहीं आने लगे, जब वर्ष 2019 में संख्या 264 करोड़पति विधायकों के साथ 93 प्रतिशत पर पहुंच गई. हाल के चुनावों के बाद नई विधानसभा में 277 करोड़पति विधायकों के साथ 97 फीसदी विधायक करोड़पति हैं. वर्ष 2009 में निर्वाचित विधायकों की औसत संपत्ति चार करोड़ रुपए, जबकि वर्ष 2014 में चुनाव जीते विधायकों की दस करोड़ रुपए, वर्ष 2019 में विधायकों की औसत संपत्ति 22 करोड़ रुपए और पिछले साल 2024 में हुए चुनाव में विधायक बने उम्मीदवारों की औसत संपत्ति 43 करोड़ रुपए है.
इसी प्रकार राज्य के सभी मंत्री करोड़पति हैं और उनकी औसतन संपत्ति 47.65 करोड़ रुपए है, जबकि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के मंत्रियों की औसतन संपत्ति 55 करोड़ रुपए है. ये सभी आंकड़े और उनमें लगातार हो रहा सुधार सिद्ध करता है कि राजनीतिकों की धन-संपदा में लगातार बदलाव हो रहा है.
दूसरी ओर भ्रष्टाचार के आरोपों पर तब तक कोई सुनवाई नहीं है, जब तक कि कोई मामला अदालत की चौखट तक नहीं पहुंच जाता या फिर किसी राजनीतिक उठापटक के लिए किसी नेता के भ्रष्टाचार का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं होती है. वैसे ऐसा भी कभी नहीं हुआ है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज न उठी हो या उसके लिए कागजों पर नियम-कानून न बने हों.
वरिष्ठ समाजसेवी अन्ना हजारे से लेकर अनेक स्तर पर कदाचार को उजागर करने तथा कार्रवाई के लिए आंदोलन हुए हैं. किंतु कार्यपालिका से आरंभ होते कारनामे हर दिशा में अपनी जगह बना चुके हैं. उन्हें सरकारी तंत्र का हिस्सा माना जाने लगा है. एक वर्ग देने-लेने को तब तक गलत नहीं मानता है, जब तक उसकी क्षमता से अधिक की मांग न की गई हो.
सामान्य आदमी को किसी चुनाव में नगदी पाना बुरा नहीं लगता है, जो बाद में उसे किसी दूसरे रूप में लौटाना मजबूरी बन जाती है. परिस्थिति और प्रमाण के अनुसार कार्यपालिका के स्तर पर कार्रवाई होती है, लेकिन सजा नाममात्र ही पाते हैं. राजनीति में नेताओं का अतीत किसी पुरानी किताब का पन्ना होता है, जिसका वर्तमान से कोई लेना-देना नहीं रह जाता है.
विधायिका में आने के बाद वेतन, भत्ते, सुख-सुविधाएं और बाद में पेंशन किसी की धन-संपदा का हिसाब नहीं दे पाती है. वैसे यदि सार्वजनिक जीवन विशेष रूप से विधानमंडलों और संसद के सदस्य बनने के बाद आर्थिक व्यवहार पर कहीं कोई संयम-नियंत्रण लाया जाए तो राजनीति के निवेशकों पर किसी तरह का बंधन डाला जा सकता है. वर्तमान दौर में वैसे इसे काल्पनिक विचार ही माना जा सकता है.
अब तो राजनीतिक शुचिता से परे ही राजनीति संभव है, जिसमें धन उसका केंद्रबिंदु है. मत और पद पाने के लिए नगदी का विकल्प ही एकमात्र हल है. राजनीति का लक्ष्य निजी संपन्नता को हासिल करने के रास्ते से वाया सत्ता कुछ प्रतिमानों को पा लेना है. इन स्थितियों के बीच गोलमाल कहीं मिलना, कहीं दिखना और कहीं होना लोकतंत्र की नियति बन चुका है. इससे पीछे हटना या बदलना शू्न्य से शुरुआत करने जैसा है, जो फिलहाल तो असंभव ही है.