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राजनीति पर व्यंग्य या व्यंग्य पर राजनीति!

By Amitabh Shrivastava | Updated: March 29, 2025 07:16 IST

लोकतंत्र में हर चीज की स्वतंत्रता है, किंतु उसके आगे स्वच्छंदता की सीमा है, जिसे सार्वजनिक मंचों से बोलने वाले हर व्यक्ति को समझना चाहिए.

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महाराष्ट्र में इन दिनों दो ऐसे दलों के बीच घमासान मचा हुआ है, जिसके संस्थापक की व्यंग्यकार के रूप में पहचान थी. व्यंग्य उनके जीवन का अभाज्य भाग था. किंतु अपनी बेहूदगी के लिए विख्यात एक ‘स्टैंडअप कॉमेडियन’ पर दोनों दल आमने-सामने आ खड़े हुए हैं. अतीत में कॉमेडियन का मतलब हास्य कलाकार से होता था, जो अपनी भाव-भंगिमाओं से लेकर बोलचाल के तौर-तरीकों से लोगों का मनोरंजन करता था.

मगर डिजिटल युग में ‘स्टैंडअप कॉमेडियन’ नामक नई विधा का विस्तार इतना अधिक हो चुका है कि उसके कलाकार यदि अपने मां-बाप तक को बख्शने के लिए तैयार नहीं हैं तो दुनिया की क्या बात. इसे कुछ ज्ञानी संविधान के अनुच्छेद 19 से मिली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बताते हैं. कुछ इसी को आधार बना कर उपहास से किसी की टोपी उछालने के लिए उतारू हैं.

उनकी बात तब तक एक वर्ग में अच्छी कही जाती है, जब तक वह खुद पर न गुजरे. किंतु दोधारी तलवार जैसे कलाकार कब किसकी इज्जत उछालेंगे, उन्हें भी पता नहीं होता है. राजनीति इनके लिए मसाला है और उसमें रहने वाले किसी स्वादिष्ट पकवान की तरह हैं. इसलिए खाते और खिलाते रहो, चाहे वह पचे या अपच का कारण क्यों न बने.

हिंदी हो या मराठी दोनों ही भाषाओं में व्यंग्य एक संस्कारित साहित्यिक परंपरा रही है. आधुनिक युग में हिंदी में शरद जोशी और हरिशंकर परसाई तथा मराठी में पु.ल. देशपांडे जैसे महान व्यंग्यकार हुए हैं, जिन्होंने स्वयं से लेकर नेताओं, सरकारों और प्रशासन को कभी नहीं बख्शा, किंतु उन्हें जीवन में केवल सम्मान मिला, जो आज तक बना हुआ है. व्यंग्य के विषय में प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का कहना था कि व्यंग्य लेखन एक गंभीर कर्म है.

सच्चा व्यंग्य जीवन की समीक्षा होता है. काका हाथरसी कहते थे कि हास्य और व्यंग्य एक ही गाड़ी के दो पहिए हैं. हास्य के बिना व्यंग्य में मजा नहीं और व्यंग्य के बिना हास्य में स्वाद नहीं आता है. दोनों बराबर एक-दूसरे का साथ दें, तभी जन-गण-मन की मनोरंजनी गाड़ी ठीक से चलती है.

अब दौर बदल चुका है. कुछ समय पहले कोई कॉमेडियन किसी कार्यक्रम में मिमिक्री करता था. कुछ चुटकुले सुनाकर लोगों का मनोरंजन करता था. अब उसका नाम ‘स्टैंडअप कॉमेडियन’ हो गया है, जो काफी पढ़े-लिखे, जागरूक, सजग, धर्मनिरपेक्ष, संविधानवादी और सैद्धांतिक व्यक्ति माने जाते हैं. ये लोग कभी कार्पोरेट सेक्टर में नौकरी के दौरान दोस्तों और सहयोगियों को मेल-मुलाकात के समय अपनी समसामयिक टिप्पणियों से हंसाया करते थे. उनके साथी इसलिए हंसते थे, क्योंकि उनके मन की बात कोई उनका अपना कह रहा है.

इसी समर्थन ने कुछ के मन में उत्साह भरा तो कुछ यूट्‌यूब के माध्यम से ‘स्टैंडअप कॉमेडियन’ बन गए. कुछ इधर-उधर भटक कर अपनी जगह बनाने में सफल हो गए. चूंकि यूट्‌यूब  अक्सर अमर्यादित कामों को भी अपने मंच पर स्थान दे देता है और शिकायत करने पर अंतर्राष्ट्रीय संस्कृति का हवाला देता है. इसलिए नई विधा के कलाकारों को अपने वर्ग में जगह बनाने में सफलता मिल ही जाती है. किंतु इनमें से कुछ की हवा का रुख देख जैसे ही राजनीतिकरण होना आरंभ होता है, वैसे ही तलवारें खिंच जाती हैं.

नए परिदृश्य में आज कही गई बात को कोई व्यंग्य बताता है, कोई कटाक्ष मानता है. किंतु मंच पर खड़े होकर माइक के सहारे किसी व्यक्ति विशेष के शरीर से लेकर निजी जीवन का उपहास बनाना किस सीमा तक उचित ठहराया जा सकता है?

यदि व्यंग्यकार की निष्पक्षता और सरलता की बात की जाए तो उसका निशाना आवश्यकता अनुरूप ही लगता है, जिससे साफ होता है कि ‘कॉमेडी’ के बहाने कहीं पे निगाहें और कहीं पे निशाना की स्थिति है. यदि राजनीति पर व्यंग्य है तो वह सर्वमान्य होना चाहिए. पुराने सालों में अनेक नेता अपने ऊपर व्यंग्य को प्रत्यक्ष सुनते थे. उनसे वे न केवल प्रफुल्लित होते थे, बल्कि जवाब देने का प्रयास भी करते थे.

वर्तमान समय में न नेता उस मानसिकता के हैं और न ही उन पर व्यंग्य करने वाले कलाकार उस स्तर के हैं. ‘स्टैंडअप कॉमेडियन’ अश्लीलता, टोपी उछालना, घर-परिवार से लेकर धर्म-संस्कृति पर आक्रमण नहीं करें तो उनका शो पूरा नहीं होता है. उनकी इसी पहचान से करियर चलता है.

अब महाराष्ट्र में ताजा मामले में राजनीति से लेकर कानूनी कार्रवाई तक आरंभ हो चुकी है. विधानसभा से लेकर जान पर बात बन आई है. इसे कोई व्यंग्य के प्रति सहनशीलता का अभाव मान रहा है. कोई इसकी आवश्यकता को गिना रहा है. कोई सच्चाई मानकर स्वीकार करने की नसीहत भी दे रहा है.

फिलहाल यह जितने मुंह उतनी बात है. किंतु राजनीति से परे भी नई विधा ‘स्टैंडअप कॉमेडियन’ पर गंभीर विचार की आवश्यकता का अनुभव किया जा रहा है, जिसमें सौ-दो सौ लोग ऐसे श्रोता भी होते हैं, जो बकवास कही जाने वाली बातों को पैसे देकर सुनते हैं और कुछ समय बंद कमरे में बैठकर हंसते हैं. यह वैसी स्थिति है, जैसी डांस बारों में होती है, जहां अंधेरे में बैठे तो बहुत लोग होते हैं, लेकिन पकड़े वही जाते हैं, जो मंच से अपने हाव-भाव से अशालीन आचरण प्रकट करते हैं.

कहा जा सकता है कि भारतीय समाज इस तरह के आयोजनों के लिए परिपक्व नहीं हुआ है, लेकिन व्यंग्य की आड़ में किसी का उल्लू सीधा करना या स्वयं को परम ज्ञानी साबित करने का तरीका भी नहीं हो सकता है. लोकतंत्र में हर चीज की स्वतंत्रता है, किंतु उसके आगे स्वच्छंदता की सीमा है, जिसे सार्वजनिक मंचों से बोलने वाले हर व्यक्ति को समझना चाहिए. फिर चाहे वह राजनीति से जुड़ा हो या फिर मनोरंजन की दुनिया का कोई कलाकार क्यों न हो. सीमोल्लंघन न कभी स्वीकार हुआ है, न कभी स्वीकार होगा. फिर चाहे कितने तर्क-कुतर्क क्यों न दिए जाएं.

टॅग्स :एकनाथ शिंदेकुणाल कामराशिव सेनामहाराष्ट्रमुंबई पुलिस
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