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ब्लॉग: राज की बात को राज ही रहने दो!

By Amitabh Shrivastava | Published: March 23, 2024 12:03 PM

फिलहाल कोई भी भाजपा का नेता मनसे प्रमुख राज ठाकरे से करीबी का राज खोलने को तैयार नहीं है। देवेंद्र फडणवीस अपनी दोस्ती का हवाला दे रहे हैं, जबकि राजनीति में कोई स्थाई दोस्त और दुश्मन नहीं होता है। ऐसे में शायद छिपे दुश्मन से कड़वा दोस्त ही भला। 

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पिछले माह लोकमत समूह की ओर से आयोजित महाराष्ट्रीयन ऑफ द इयर-2024 के कार्यक्रम में राज्य के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने यह साफ किया था कि शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे के साथ भाजपा के दोबारा संबंध अच्छे इसलिए नहीं हो सकते हैं, क्योंकि उन्होंने जिस तरह प्रधानमंत्री पर टिप्पणियां की हैं, उससे मन को ठेस पहुंची है।

यदि शिवसेना नेता के शब्दों से भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) इतनी आहत है तो महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) प्रमुख राज ठाकरे से किस सोच के साथ नजदीकियां बढ़ा रही है। राज ठाकरे ने भाजपा के कुछ वरिष्ठ नेताओं को छोड़ शायद ही किसी नेता को अपने सार्वजनिक भाषणों-साक्षात्कारों में बख्शा होगा। यहां तक कि देवेंद्र फडणवीस भी कई बार उनके निशाने पर आ चुके हैं।

फिर अपने बेटे के साथ राज ठाकरे का नई दिल्ली में गृह मंत्री अमित शाह के दरवाजे पर पहुंचना आश्चर्यजनक है। सकारात्मक दृष्टिकोण वाले राजनीतिक पंडित इसे संभावना का द्वार मान सकते हैं, तो दूसरी ओर आलोचकों के लिए यह भाजपा का अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का मामला हो सकता है।

अतीत पर नजर डालें तो शिवसेना के प्रमुख बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे ने अपने चचेरे भाई उद्धव ठाकरे के साथ सियासी मतभेदों के चलते अलग हो कर नई पार्टी बनाई। नौ मार्च 2006 को मुंबई में ‘महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना’ नाम से स्थापना कर मराठी अस्मिता का मुद्दा उठाया। कई आंदोलनों के माध्यम से उत्तर भारतीयों पर हमले किए। मराठी नाम पट्टिका के लिए व्यावसायिक और औद्योगिक प्रतिष्ठानों में तोड़-फोड़ की।

फिर राजनीति में कदम बढ़ाते हुए पार्टी ने वर्ष 2009 में पहली बार लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लड़ा और उसमें पार्टी के 11 उम्मीदवारों को अच्छे मत मिले, लेकिन मत संख्या सीट जीतने के लिए काफी नहीं थी। छह महीने बाद विधानसभा चुनाव में पार्टी ने जीत दर्ज कर अपने 13 विधायक विधानसभा भेजे। चुनाव में पार्टी को 5.71 प्रतिशत मत मिले। इसी प्रदर्शन को देखते हुए वर्ष 2010 में चुनाव आयोग ने पार्टी को चुनाव लड़ने के लिए आधिकारिक चुनाव चिह्न ‘रेलवे इंजन’ दिया।

पार्टी का सफर यहीं नहीं रुका और वर्ष 2012 में हुए 10 महानगर पालिका के चुनावों में उसको जबर्दस्त सफलता मिली। यहां तक कि नासिक में पार्टी का पहला महापौर भी बन गया. पुणे शहर में पार्टी विपक्ष के नेता के रूप में उभरी। मुंबई-ठाणे शहर में मत प्रतिशत काफी बढ़ गया। पार्टी को वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में 1.5 फीसदी मत मिले. इसी वर्ष के विधानसभा चुनाव में 3.1 फीसदी मत मिले।

पिछले लोकसभा चुनाव में राज ठाकरे ने कोई उम्मीदवार नहीं उतारा, लेकिन उन्होंने राष्ट्रीय जनतांत्रिक मोर्चे (राजग) के खिलाफ प्रचार कर उद्धव ठाकरे और भाजपा दोनों को खरी-खोटी सुनाई। मगर भाजपा की सत्ता में वापसी पर उन्होंने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने और सीएए का समर्थन कर अपनी नजदीकी फिर बढ़ा ली। उसके बाद मनसे ने विधानसभा चुनाव के दौरान 101 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, जिनमें से सिर्फ एक सीट कल्याण ग्रामीण पर विजय मिली।

86 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई, किंतु मत 2.25 प्रतिशत मिले। कुल मिलाकर वर्ष 2009 में 13 विधायकों से वर्तमान में शून्य की संख्या तक मनसे का सफर है। पिछला लोकसभा चुनाव लड़ा नहीं और विधानसभा में एक विधायक पहुंचाने के बाद आज नगरसेवकों तक की स्थिति सम्मानजनक नहीं है। बावजूद इसके मनसे नेता की पहचान और मजबूत स्थिति जरूर है।

पिछले लोकसभा चुनाव में शिवसेना के साथ 41 सीटें और विधानसभा में 105 सीटें जीतने वाली भाजपा के समक्ष समस्याएं उसकी अपनी ही पैदा की हुई हैं। पहले शिवसेना के साथ अनबन, फिर गठबंधन का टूटना और बाद में शिवसेना को तोड़ना तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में फूट पड़ना जैसे घटनाक्रमों ने भाजपा को तात्कालिक लाभ तो पहुंचाया, किंतु चुनावों में यही समीकरण गले की हड्‌डी बनते जा रहे हैं। पहले गठबंधन को संभालना, फिर ठाकरे फैक्टर से मुकाबला करना और आखिर में पार्टी के निष्ठावानों को साथ लेकर चलना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती है, जिसे अलग-अलग कर निपटने की कोशिश की जा रही है।

इसमें ही एक नायाब रास्ता मनसे के साथ राज ठाकरे के रूप में दिख रहा है। इसके सहारे कई मार्ग ढूंढ़े जा रहे हैं, जिनमें बढ़ने पर आगे गड्‌ढा और पीछे खाई जैसी स्थितियां भी निर्मित हो सकती हैं। भाजपा मनसे का लाभ मुंबई, पुणे और नासिक जैसे क्षेत्रों से मान रही है। किंतु इन्हीं इलाकों में उसके आंदोलनों का असर भी था। मुंबई में गठबंधन होता है तो बिहार और उत्तर प्रदेश में संदेश अच्छा नहीं जाएगा।

विपक्ष अभी से ही उत्तर भारतीयों पर हमले के मुद्दे को भुनाने में लग गया है। यदि दोनों दलों के लिए यह समान फायदे की स्थिति मानी जा रही है तो शायद वह भी एक भ्रम होगा, क्योंकि मनसे लोकसभा सीट भी जीतती है तो उसकी सेहत पर बड़ा लाभ होगा।

भाजपा अपने 400 पार के लक्ष्य को पाने के लिए क्षेत्रीय दलों पर जमकर डोरे डाल रही है। चाहे ओडिशा में बीजू जनता दल से गठबंधन की बात हो या फिर तेलुगू देशम पार्टी से आंध्रप्रदेश में तालमेल का सवाल हो, हर राज्य में नए समीकरणों की जोड़-तोड़ से उसे अपने लक्ष्य तक पहुंचना है।

महाराष्ट्र में भाजपा अपने पुराने प्रदर्शन 41 सीटों से आगे बढ़कर 45 के पार पहुंचने तक का लक्ष्य तय किए हुए है। इसे पाने में कम से कम महाराष्ट्र में तो अनेक मुश्किलें हैं, जिसे वह अप्रत्यक्ष रूप से मान रही है। इसका अंदाज उसके उम्मीदवारों की घोषणा में देरी से भी लगाया जा सकता है।

आम तौर पर किसी भी चुनाव में भाजपा के उम्मीदवारों के नाम सबसे पहले सामने आते थे। फिलहाल कोई भी भाजपा का नेता मनसे प्रमुख राज ठाकरे से करीबी का राज खोलने को तैयार नहीं है। देवेंद्र फडणवीस अपनी दोस्ती का हवाला दे रहे हैं, जबकि राजनीति में कोई स्थाई दोस्त और दुश्मन नहीं होता है। ऐसे में शायद छिपे दुश्मन से कड़वा दोस्त ही भला। 

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