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ब्लॉग: राजनीति में ज्यादा नहीं चमकते हिंदी सितारे

By राजकुमार सिंह | Updated: May 7, 2024 09:56 IST

हिंदी सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन की राजनीतिक पारी भी बेहद निराशाजनक रही।

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हिंदी फिल्मों की स्वप्न सुंदरी हेमा मालिनी और दूरदर्शन के लोकप्रिय सीरियल ‘रामायण’ के राम अरुण गोविल की किस्मत लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण के मतदान में ईवीएम में बंद हो गई। हेमा जीत की हैट्रिक के लिए लगातार तीसरी बार मथुरा से मैदान में हैं, जबकि गोविल पहला प्रयास मेरठ से कर रहे हैं।

इन दोनों की हार-जीत का पता तो चार जून को चलेगा, लेकिन राजनीति में हिंदी सितारे अभी तक बहुत ज्यादा चमक नहीं बिखेर पाए। दक्षिण भारत में एमजीआर, एनटीआर और जयललिता सरीखे फिल्मी सितारे अपने दम पर मुख्यमंत्री की कुर्सी तक भी पहुंचे, लेकिन उत्तर भारत में हिंदी सितारे कहीं ज्यादा विशाल प्रशंसक वर्ग के बावजूद राजनीति में कोई बड़ी लकीर अभी तक नहीं खींच पाए। फिर भी हर चुनाव में सितारों के मैदान में उतरने और उतारने का सिलसिला बरकरार है तो इसलिए कि कम-से-कम एक चुनाव में तो इनके स्टारडम का जादू मतदाताओं पर चल ही जाता है।

2024 के लोकसभा चुनाव में भी बड़ी संख्या में सितारे मैदान में नजर आते हैं। शायद ही कोई दल इस मामले में अपवाद हो। किसी भी अन्य नागरिक की तरह सितारों को भी चुनाव लड़ने का अधिकार है, लेकिन लोकप्रियता के सहारे संसद या विधानसभा में पहुंच कर अपने दल की एक सीट बढ़ा देने मात्र से निर्वाचित जनप्रतिनिधि के रूप में उनकी भूमिका पूरी नहीं हो जाती।

दरअसल उसके बाद ही असली भूमिका शुरू होती है। विडंबना यह है कि मतदाताओं से लेकर संसदीय लोकतंत्र तक के प्रति अपेक्षित भूमिका की कसौटी पर ज्यादातर सितारे फेल हो जाते हैं। बेशक कांग्रेस से सांसद और मंत्री रहे सुनील दत्त इस मामले में अपवाद ही नहीं, मिसाल भी साबित हुए, जिन्हें राजनेता से भी ज्यादा संवेदनशील समाजसेवी के रूप में लोग याद करते हैं। भाजपा से सांसद और मंत्री रहे विनोद खन्ना ने भी अपने निर्वाचन क्षेत्र गुरदासपुर के लिए काम किया, पर ज्यादातर हिंदी सितारे राजनीति को भी फिल्मी भूमिका की तरह चमक-दमक का ही खेल मान लेते हैं। प्रशंसकों से तालियों के साथ वोट भी बटोर कर अगले चुनाव तक वे गायब हो जाते हैं।

जनता के बीच से तो वे आते ही नहीं, चुनाव जीतने के बाद भी जनता से जुड़े रहने की जहमत नहीं उठाते। नतीजतन कहीं-कहीं तो गुमशुदा सांसद जैसे पोस्टर लगाने की नौबत आ जाती है। जैसी कि निवर्तमान लोकसभा में गुरदासपुर में सनी देओल के लिए आई या पहले बीकानेर में धर्मेंद्र के लिए भी आई थी।

रामानंद सागर के टीवी सीरियल ‘रामायण’ के राम अरुण गोविल की बारी तो अब आई है, लेकिन उसी सीरियल में सीता और रावण की भूमिका निभानेवाले क्रमश: दीपिका चिखलिया और अरविंद त्रिवेदी 1991 में ही भाजपा के टिकट पर चुनाव जीत कर लोकसभा चले गए थे।  एक और लोकप्रिय टीवी सीरियल ‘महाभारत’ में कृष्ण बने नीतीश भारद्वाज भी बहुत पहले संसद सदस्य बन चुके।

उसके बाद ये तीनों ही न तो पार्टी में कहीं दिखे और न ही निर्वाचन क्षेत्र में। हिंदी सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन की राजनीतिक पारी भी बेहद निराशाजनक रही। राजीव गांधी से मित्रता के चलते 1984 में इलाहाबाद से हेमवती नंदन बहुगुणा को हरा कर सांसद बने अमिताभ ने बोफोर्स विवाद के चलते सांसदी और राजनीति, दोनों को अलविदा कह दिया। 

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