कुछ वर्ष पूर्व भारतीय पुलिस सेवा की एक अधिकारी ने अनौपचारिक बातचीत में कहा था कि जब वह वर्दी पहन लेती हैं तो केवल पुलिस हो जाती हैं. फिर जाति-धर्म और स्त्री-पुरुष के सारे भेद समाप्त हो जाते हैं. यानी केवल गणवेश धारण करने के बाद से जिम्मेदारी और जवाबदेही निर्धारित हो जाती है. इस स्थिति में जब कहीं जातीय संघर्ष अथवा सांप्रदायिक संघर्ष होता है, तब पुलिस का रंग ढूंढ़ना और संदेह करना अनुचित कहा जा सकता है.
हाल के दिनों में अपनी अलग पहचान बना चुके महाराष्ट्र के बीड़ जिले की केवल जातिगत समीकरण समस्या नहीं है. जिले ने हमेशा ही राजनीति से जाति तक के मामलों में उतार-चढ़ाव देखे हैं. किंतु असली चिंता और आवश्यकता जिले के पिछड़ेपन से लेकर एक नए जिले को बनाने की मांग की है, जिसे कभी प्रशासन और कभी राजनीति की आड़ में किनारे रखा गया है.
अब अपराधों से जुड़ी घटनाओं को हवा मिल रही है तो जातिभेद को ढाल बनाया गया है. वास्तविक रूप में सिर्फ बीड़ की हिंसा ही नहीं, बल्कि मराठवाड़ा की समस्याओं के सालों लंबित रहने के बाद सामाजिक ताना-बाना के बदलते स्वरूप को समझना आवश्यक है. राजनीति की रोटियों को सेंकने के लिए जिला विशेष को बिहार जैसा बताने के पहले असमानता के कारणों का आईना देखना आवश्यक है.
पिछले दिनों राज्य के बजट के पहले वर्ष 2023-24 की आर्थिक समीक्षा प्रस्तुत की गई, जिसमें राज्य की प्रति व्यक्ति औसत आय 2,78,681 रुपए बताई गई. इस आंकड़े में मराठवाड़ा के सभी जिले और देश की प्रति व्यक्ति औसत आय 1,88,892 रुपए से जालना, बीड़, परभणी, हिंगोली, नांदेड़ जिले पीछे हैं. समीक्षा के अनुसार मराठवाड़ा के चार जिले हिंगोली, परभणी, बीड़ और धाराशिव में चालू कारखाने पचास से भी कम हैं.
बीड़ जिले में मात्र 42 उद्योग चालू हैं, जिनमें 2130 श्रमिक कार्यरत हैं. शिक्षा के स्तर पर संभाग में प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर तीस से अधिक विद्यार्थियों पर ही एक शिक्षक है. बीड़ में कृषि की दृष्टि से वर्षा औसत 497 मिलीमीटर अनुमानित है, जिससे मराठवाड़ा के अन्य जिलों की तुलना में भी अधिक आशादायी नहीं है.
इन कुछ आंकड़ों के सापेक्ष बीड़ ही नहीं, बल्कि मराठवाड़ा की स्थिति समझी जा सकती है. बावजूद इसके जातिगत वैमनस्य से पनपती हिंसा को प्रथम क्रमांक दिया जा रहा है.
किसी भी सभ्य समाज में आर्थिक विषमता, अवसरों का अभाव और भेदभाव असंतोष को जन्म देता है. जब देश में स्वतंत्रता के 75 साल मनाने और अमृतकाल की चर्चा होती है तो देश का विकसित राज्य माने जाने वाले महाराष्ट्र का बीड़ जिला अभी-भी ठीक-ठाक रेल सेवा से जुड़ा नहीं है. कुछ दिनों पहले तेज गति से चलने वाली ट्रेन का परीक्षण हुआ है. इस स्थिति में कृषि या फिर औद्योगिक उत्पाद को देश-दुनिया के बाजार से जोड़ना असंभव है. इस स्थिति को देखते हुए कई पीढ़ियां गुजर चुकी हैं और नई पीढ़ी के सामने भी कोई उजली तस्वीर नहीं है.
यदि कुछ दिखता है तो वह जाति के आधार पर राजनीति को चलाया जाना है. वर्तमान परिदृश्य में समाज विशेष की बात होती है तो जिले में क्या कभी अन्य किसी समाज ने अपना वर्चस्व नहीं बनाया? समाज आधारित परिवारवाद को बढ़ावा नहीं दिया? इस स्थिति में दोषारोपण की बजाय सभी को अपने गिरेबां में झांकने की आवश्यकता है.
चर्चा में फिलहाल बीड़ के साथ ही समूचा मराठवाड़ा वर्षों से पिछड़ापन देख रहा है. हवाई सेवा तो दूर, रेलमार्ग का दोहरीकरण, सभी जिलों में बिजली की ट्रेनें सपना ही है. पानी की समस्या इतनी गहरा चुकी है कि आसमान तो पहले से दूर था, अब जमीन भी धोखा दे रही है. शिक्षा का आसरा पुणे, मुंबई, बेंगलुरू और हैदराबाद बन चुके हैं.
भले ही परिक्षेत्र से चार मुख्यमंत्री, एक उपमुख्यमंत्री, देश के दो गृह मंत्री, दो केंद्रीय मंत्री और राज्य सरकार में अनेक मंत्री बन चुके हों, लेकिन जहां देश के प्रमुख शहरों में मेट्रो की चर्चा हो रही है, वहीं मराठवाड़ा में सामान्य रेल सेवा का इंतजार है. अब तक सामान्य व्यक्ति का आना-जाना राज्य परिवहन की बसों पर निर्भर है. सब जानते हैं कि उद्योग जगत की आवश्यकता मजबूत आधारभूत ढांचा होती है, जिसकी कमजोरी का परिणाम बीड़ और मराठवाड़ा को भुगतना पड़ता है.
सरकारें उद्योगों के दूर जाने का राजनीतिक रोना तो रोती हैं, लेकिन बदलाव के लिए ठोस कदम नहीं उठाती हैं. मराठवाड़ा के जिलों से लोगों का पलायन छत्रपति संभाजीनगर से लेकर पुणे-मुंबई हो रहा है. बीड़ का गरीब तबका कई सालों से गन्ना कटाई मजदूर के रूप में भटकता है. किंतु न कोई समाधान है और न कोई रास्ता है.
जब समस्याओं का हल न मिले तो बैर बढ़ता ही है, जो इन दिनों बीड़ में दिख रहा है. हालांकि अपराध को अपराध के दृष्टिकोण से देखना चाहिए, लेकिन राजनीति के हावी होने के बाद उसे एक नई शक्ल दी जा रही है. उसे राज्य के एक जिले की पहचान बताया जा रहा है. हालांकि राजनीति से परे भी अनेक विवादों के हिंसक परिणाम दिखाई देते रहे हैं, फिर भी एक जिला विशेष पर समूची प्रशासनिक व्यवस्था केंद्रित है. इसी क्रम में जिला पुलिस ने अपने उपनाम हटाए हैं. किंतु नाम धर्म और उपनाम जाति-धर्म को दर्शाते हैं और सामाजिक व्यवस्था इनसे परे नहीं चल पाती है.
बावजूद इसके कि दोनों ही संघर्ष के कारण भी बनते हैं. इसलिए आवश्यक यह है कि राजनीति समस्याओं को सुलझाने की दिशा में हो. यदि आर्थिक स्तर पर सुधार आता है तो अनेक परेशानियों का हल मिल जाता है. जिसे जाति और धर्म से परे सोचकर ढूंढ़ना होगा, क्योंकि विषमता परेशानी और समानता खुशहाली लाती है.