मैं जब 2004 में दिल्ली आया था तो उस समय गर्मियों में दिल्ली का अधिकतम तापमान 40 डिग्री के करीब होता था। याददाश्त के आधार पर ऐसा अंदाज तो था लेकिन एक वेबसाइट पर फिर से सर्च करके मैंने उसकी पुष्टि की। अब लगता है कि 47-48-49 डिग्री न्यू नॉर्मल बनता जा रहा है।
दिल्ली-एनसीआर में एयर कंडीशनर्स के कारण बढ़ी है तापमान
यानी करीब दो दशक में तापमान 8-9 डिग्री बढ़ गया। मेरे मित्र ने एक स्टोरी की थी जिसमें जामिया इत्यादि के प्रोफेसरों के हवाले से बताया गया कि दिल्ली-एनसीआर शहर में एयर कंडीशनर्स की वजह से हर दशक करीब दो डिग्री तापमान बढ़ा है। इसके अलावा अन्य कारण हैं। दिल्ली एनसीआर की आबादी साल 2020 तक करीब साढ़े तीन करोड़ हो चुकी है।
दिल्ली-एनसीआर में कंक्रीट के जगल, एनसीआर में हरियाली का अभाव, जल-स्रोतों का लगभग न के बराबर होना और अनवरत निर्माण, गाड़ियों की बढ़ती संख्या, सार्वजनिक यातायात की उचित व्यवस्था और लोगों में उसे इस्तेमाल करने की मानसकिता का अभाव इसका बड़ा कारण है। बल्कि शोध तो यह तक बता रहे हैं कि इंटरनेट के बढ़ते प्रयोग के कारण भी गर्मी बढ़ रही है।
केंद्रीकृत विकास का सबसे बड़ा खामियाजा भुगत रही है दिल्ली
कुल मिलाकर, एक लाइन की स्टोरी ये है कि देश में केंद्रीकृत विकास का सबसे बड़ा खामियाजा दिल्ली भुगत रही है, जहाँ उसके इतराने के लिए देश के बुनियादी ढाँचे का बड़ा हिस्सा भी मौजूद है। उसी बुनियादी ढाँचे ने लोगों को देश के अंदुरुनी हिस्सों से निकालकर दिल्ली जैसे शहरों में इकट्ठा कर दिया है।
मैं मुंबई या बंगलोर में नहीं रहा हूँ, लेकिन वहां भी कमोवेश वही हालात होंगे। हाँ, मुंबई के निकट समुद्र है और बंगलोर में भौगोलिक कारणों से तापमान कम रहता है, हालाँकि कंक्रीट, गाडियाों और एसी से वहाँ भी फर्क पड़ा ही होगा। हाल ही में चेन्नई में पानी के संकट से हम सभी वाकिफ हैं।
दरभंगा और मुधबनी में भूजल स्तर जा चुका है सबसे नीचे
हाल ये है कि दरभंगा और मुधबनी जैसे जिलों में भूजल का स्तर काफी नीचे जा चुका है और कुछ दिन बाद वहाँ के लोग भी बाहर से पानी मँगा कर पिएँगे। सरकार नल-जल योजना पर काम तो कर रही है, लेकिन वो इतनी मंथर गति से और भ्रष्टाचार-युक्त है कि कुछ कहना मुश्किल है।
नदियों में पानी नहीं है और हम अल्प-वृष्टि और अनावृष्टि में लटक रहे हैं। दिल्ली में यमुना लगभग साल भर सूखी रहती है। बरसात के समय जब ऊपर से पानी छोड़ा जाता है तो यमुना नदी सी लगती है।
आजादी के बाद कुल 30 लाख तालाबों की संख्या घटकर हुई 20 लाख
एक खबार के मुताबिक, आजादी के बाद देश के करीब 30 लाख तालाबों में 20 लाख तालाब गायब हो गए क्योंकि तालाब जब से सरकारी हुए, लोगों ने उसका अतिक्रमण करना धर्म समझ लिया। सरकारी अधिकारी और राजनीतिक दलों को उसकी न तो चिंता है और न ही उनके पास उतने कर्मचारी हैं कि तालाबों की निगरानी कर सकें।
बहुत सारी छोटी-नदियाँ और धाराएं गायब हो गई। एक जलधारा तो मधुबनी जिले के मेरे गांव खोजपुर से बहती थी, जिसे लोगों ने भरकर खेत और मकान बना लिए। न तो किसी ने शिकायत की और न ही कोई सरकारी अधिकारी उसे देखने आया। सरकारी तंत्र को पता ही नहीं चल पाया कि वो बरसाती धारा कब गायब हुई!
हाल ऐसा है कि पर्यावरण की चिंता सिर्फ एलीट वर्ग की चिंता बनकर रह गई है, वो भी शायद इसलिए क्योंकि उन्हें लगता है कि बाकी हर चीज वे पैसे से खरीद सकते हैं, लेकिन स्वच्छ पर्यावरण या हवा नहीं ला सकते।
हालात देखते हुए महात्मा गांधी आते है याद
ऐसे में बापू याद आते हैं जिन्होंने संभवत: इस समस्या को सौ साल पहले देख लिया था और विकेंद्रित विकास, लघु कुटीर उद्योग, गांवों के विकास इत्यादि की बात की थी। लेकिन लोगों को लगा कि वे देश को बैलगाड़ी के युग में ले जाना चाहते हैं। उनके पट्टशिष्य नेहरू ने ही अपनी नीतियों से उनकी बहुत सी बातों को खारिज कर दिया। आंबेडकर की राय में ग्राम्य व्यवस्था दलित हितों के अनुकूल नहीं थी और गांव शोषण और अंधकार के केंद्र थे।
बाजार और सरकारी अधिकारी केंद्रीकृत विकास के समर्थक होते हैं, क्योंकि एक जगह बड़ी आबादी होने से माल बेचने, प्रचार करने और शासन करने में आसानी होती है। दुर्भाग्य ये है कि हम विचारों में, विभिन्न तरह की स्वतंत्रताओं में बहुलतावाद या विकेंद्रण के समर्थक होते हैं, लेकिन हमारा शासन और अर्थ तंत्र हमेशा सूक्ष्म रूप से केंद्रीकरण के पक्ष में रहता है।
किसी नए विश्वविद्यालय का प्रस्ताव हो तो नेता से लेकर अफसर तक बड़े शहर और एयरपोर्ट के पास रखना चाहते हैं।
नदियों को लेकर क्या कहा था गडकरी ने
राजनीतिक दलों के युवा नेताओं में ऐसा कोई चतुर सुजान नहीं दिखता, जो इस पर सोच रहा हो। एक बार गडकरी ने जरूर कहा था कि हमारी नदियाँ जिस दिन आर्थिक रूप से उपयोगी होने लगेंगी, उस दिन अपने आप लोग उसे साफ रखने लगेंगे या ऐसा सिस्टम बनता जाएगा। लेकिन वो भी आर्थिक ही सोच रहे थे, पर्यावरण की चिंता उसमें बाय डिफॉल्ट थी।
मैंने बहुत दिनों से स्कूल के सिलेबस नहीं देखे हैं। बचपन के स्कूली सिलेबस में पर्यावरण की चिंता तो थी, लेकिन उनमें भी केंद्रीकरण और विज्ञान-प्रदत्त सुविधाओं की आलोचना से परहेज किया जाता था।
देश में जल-स्रोत और नदियों के संरक्षण के लिए कोई ठोस कानून की कमी
उपभोक्तावाद के इस दौर में सिर्फ कोरोना जैसी महामारियाँ ही सिखला पाती हैं शरीर का इम्यून कैसे ठीक रखें, या कि हर तरह का खान न खाएँ और प्राकृतिक जीवन जीने की कोशिश करें। वरना, आम जनता को उपभोग के लिए व्याकुल ही लगती है।
हमारे देश में जंगल को लेकर तो कठोर कानून बन गए हैं, लकिन जल-स्रोतों, जलाशयों, नदियों के संरक्षण के लिए वैसे कानून नहीं हैं या उस तरह से लागू नहीं किए जाते। कानून बन भी जाए तो जल को लेकर वो जागरूकता तब तक नहीं आती जब तक चेन्नई जैसा जल संकट न आ जाए।
हमें ये देखना होगा कि प्रकृति अपनी समग्रता में काम करती है और जल, वन, हवा, खाद्यान्न और तापमान सभी आपस में जुड़े हुए हैं।
देश में बड़े पर्यावरण आन्दोलन की है जरूरत
अनुपम मिश्र ने एक किताब लिखी थी 'आज भी खरे हैं तालाब'। उसकी लोकप्रियता बताती है कि आम लोगों को पर्यावरण की चिंता तो है, लेकिन वो व्यवस्थागत रूप से हो नहीं पा रहा है।ऐसे में, एक बड़े पर्यावरण आन्दोलन की जरूरत आ गई है। मशहूर लेखक अमिताभ घोष ने कहीं ये बात कही है कि पर्यावरण की चिंता दुनिया के सारे मुद्दों से अहम है और लेखकों, बुद्धिजीवियों और नेताओं को इस पर ध्यान देना ही होगा।