अंडमान की सेल्युलर जेल में घूमते हुए रूह कांप जाती है. आजादी की ख्वाहिश रखने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के शरीर से खून रिसते रहते थे और हमारे देश को गुलाम बनाने वाले अंगरेजों के चारणहार बने भारतीय पुलिसकर्मी उन पर कोड़ा बरसाते रहते थे. वे अचेत हो जाते...घंटों तक बेहोश रहते और जब होश में आते तो फिर उसी तरह की प्रताड़ना के शिकार हो जाते. सेल्युलर जेल की हर ईंट से जैसे चीख सी उठती है.
कलेजा बैठने लगता है और मन उन स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति श्रद्धा से भर जाता है जिनकी बदौलत आज हम आजाद भारत के नागरिक हैं. सदियों तक हम कभी मुगलों के गुलाम रहे तो कभी अंग्रेजों के, कुछ हिस्से पर पुर्तगालियों ने राज किया तो कुछ हिस्सा फ्रांसीसियों का उपनिवेश रहा. लंबे और संघर्षपूर्ण बलिदानी आंदोलन ने हमें आजादी दिलाई और आज पूरी दुनिया में भारत एक शक्ति के रूप में उभर रहा है.
मगर कुछ बुनियादी सवाल हैं कि हमारी तरक्की की रफ्तार क्या रही है? हमारे साथ ही आधुनिक चीन वजूद में आया, परमाणु बम से तबाह होने के बाद जापान ने नए सिरे से यात्रा शुरू की. इन दोनों देशों की तरक्की की रफ्तार देखें और हम अपनी रफ्तार देखें तो मन में यह सवाल जरूर पैदा होता है कि कमी कहां रह गई थी? इसका अर्थ यह नहीं कि हमने तरक्की नहीं की है.
हम दुनिया की चौथी बड़ी आर्थिक ताकत बन चुके हैं, हमने चांद के उस हिस्से पर अपना यान उतार दिया है जहां दुनिया का कोई भी देश नहीं पहुंच पाया है. हम चांद पर किसी भारतीय को भेजने की दिशा में बड़ी तेजी के साथ आगे बढ़ रहे हैं. कई चीजों में हम दुनिया के बड़े निर्यातक बन चुके हैं लेकिन जब चीन या जापान से तुलना करते हैं तो कमी खटकती है. जापान में बुलेट ट्रेन 1984 में शुरू हो चुकी थी.
2008 में चीन में भी तीव्र गति वाली ट्रेनें शुरु हो गईं लेकिन हमारे यहां अभी भी बुलेट ट्रेन का इंतजार हो रहा है. तकनीक के क्षेत्र में आज जापान ने बेपनाह शोहरत हासिल की है तो उत्पादन में नवाचार के मामले में चीन बहुत आगे जा चुका है. यदि आप गहराई से विश्लेषण करें तो पाएंगे कि उन दोनों देशों की तरक्की में एक तत्व समान है और वह है अनुशासन. चीन के बारे में आप हम कह सकते हैं कि वहां सरकारी तानाशाही ने अनुशासन कायम किया लेकिन जापान के बारे में तो ऐसा नहीं कह सकते!
जापान में अनुशासन वहां के सामाजिक जनजीवन से आया है. जापान के बारे में ऐसा कहा जाता है कि किसी को नीतियों का विरोध करना होता है तो वह ज्यादा काम करने लगता है. जापान में हर व्यक्ति अपने निर्धारित समय पर कार्यस्थल पर पहुंचता है और एक-एक मिनट का सदुपयोग करता है. यहां तक कि लोग छुट्टियां भी अत्यंत कम लेते हैं. यदि कोई कम काम करे तो वह अपराधबोध से ग्रस्त हो जाता है.
मगर हमारे यहां क्या हालत है? हम भारतीय जितनी देर भी कार्यस्थल पर रहते हैं क्या पूरी तरह समर्पित रहते हैं? क्या हम कभी इस बात का विश्लेषण करते हैं कि हमारी उत्पादकता कितनी है? क्या हम निर्धारित नियमों का पालन करते हैं? ये ऐसी बातें हैं जिन पर हमें ध्यान देना होगा. हर चीज के लिए हम सरकार को दोषी ठहराने में जरा सा भी विलंब नहीं करते लेकिन यह कभी नहीं सोचते कि हमारे दायित्व क्या हैंं?
ध्यान रखिए कि अनुशासित नागरिक ही किसी भी देश की नींव को मजबूती देते हैं. जब तक हम खुद को अनुशासित नहीं बनाएंगे, अपनी अगली पीढ़ी को अनुशासन का पाठ नहीं पढ़ाएंगे तब तक अपनी आजादी को पुष्पित-पल्लवित नहीं कर पाएंगे.