Haryana-Maharashtra Assembly Elections: लोकसभा चुनाव में खराब मौसम में फंसते दिखे भाजपा के चुनावी विमान को हरियाणा के बाद महाराष्ट्र ने जो ऊंची उड़ान दी है, उसके सदमे से उबर पाना विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’, खासकर कांग्रेस के लिए संभव नहीं लगता. लोकसभा चुनाव परिणाम में महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ महायुति पर विपक्षी गठबंधन महाविकास आघाड़ी भारी पड़ता नजर आया था. लोकसभा चुनाव में लगभग एक-तिहाई सीटों पर सिमट जाने के बावजूद महायुति के लिए संतोष की बात थी कि विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त के मामले में फासला ज्यादा नहीं था.
मत प्रतिशत में भी ज्यादा अंतर नहीं था इसीलिए महायुति ने हिम्मत हारे बिना जमीनी राजनीतिक और चुनावी प्रबंधन की बिसात बिछाई और हारी हुई लग रही बाजी पलट दी. अक्सर हार के बाद ईवीएम समेत चुनाव प्रक्रिया पर उंगली उठानेवाले विपक्ष ने फिलहाल तो समीक्षा और आत्मविश्लेषण की बात ही कही है. दरअसल यह विपक्ष के लिए समीक्षा से भी ज्यादा आत्मविश्लेषण की घड़ी है.
आखिर कुछ तो कारण हैं कि विपक्ष जीती दिख रही बाजी भी हार जाता है और भाजपा या उसके नेतृत्ववाला गठबंधन हारी हुई दिख रही बाजी भी जीत जाता है. हरियाणा में भाजपा और कांग्रेस ने 10 में से पांच-पांच लोकसभा सीटें जीतीं. राजनीतिक प्रेक्षक भी मानने लगे कि भाजपा के हाथ से हरियाणा की सत्ता फिसलने ही वाली है, लेकिन महज चार महीने बाद ही पासा पलट गया.
भाजपा ने पिछली दोनों बार से भी ज्यादा सीटें जीतते हुए शानदार ‘हैट्रिक’ की. महाराष्ट्र तो हरियाणा से भी दो कदम आगे निकल गया. लोकसभा चुनाव में भाजपा की महायुति महाराष्ट्र में 48 में से 17 सीटों पर सिमट गई थी. भाजपा के हिस्से तो मात्र नौ सीटें ही आई थीं. जिस तरह इस बार हरियाणा के साथ ही महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव नहीं करवाए गए.
लोकसभा चुनावों के बाद से लोक-लुभावन योजनाओं और घोषणाओं की झड़ी लगा दी गई, उससे भी संकेत यही गया कि भाजपा को सत्ता की जंग की मुश्किलों का अहसास है. चुनावी मुद्दे कमोबेश समान होने के बावजूद झारखंड में विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की जीत महाराष्ट्र के जनादेश के विश्लेषण को और भी मुश्किल बना देती है.
भाजपा की हरसंभव कवायद के बावजूद हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झारखंड मुक्ति मोर्चा-कांग्रेस-राजद-वाम दल सरकार को लगातार दूसरी बार जनादेश राजनीतिक दलों और नेताओं की विश्वसनीयता पर भी विचार की जरूरत को रेखांकित करता है. अपने पांच साल के शासन में आदिवासी बहुल झारखंड में गैरआदिवासी मुख्यमंत्री पर दांव लगानेवाली भाजपा का पूरा फोकस इस बार आदिवासी राजनीति पर रहा, लेकिन मतदाताओं का विश्वास नहीं जीत पाई. निश्चय ही महाराष्ट्र और झारखंड के जनादेश का सबसे सकारात्मक पक्ष यह है कि मतदाताओं ने स्थिर सरकार के लिए स्पष्ट जनादेश दिया है.
लेकिन दोनों ही राज्यों के मतदाताओं ने जनादेश के साथ आनेवाली सरकारों पर जन आकांक्षाओं का जो बोझ डाला है, उसकी कसौटी पर खरा उतरना आसान नहीं होगा. लोक-लुभावन योजनाएं और घोषणाएं मतदाताओं को आकर्षित करने में निश्चय ही सफल रहती हैं, लेकिन जनआकांक्षाओं पर खरा न उतरने पर होनेवाली जन प्रतिक्रिया भी बहुत तीव्र होती है. पहले से ही अर्थव्यवस्था पर दबाव झेल रहे महाराष्ट्र और झारखंड की सरकारों को राजनीति और अर्थनीति के बीच संतुलन बिठाने की मुश्किल कवायद की कसौटी पर भी खरा उतरना होगा.