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संपादकीयः राजनीति में अभी भी अपने हक से वंचित हैं महिलाएं

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Updated: December 13, 2022 16:13 IST

लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने के उद्देश्य से महिला आरक्षण विधेयक का करीब ढाई दशक बाद भी पारित नहीं हो पाना इसका उदाहरण है। महिला आरक्षण विधेयक को पहली बार 1996 में संसद में पेश किया गया था।

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देश के 19 राज्यों की विधानसभाओं में महिला विधायकों का प्रतिनिधित्व 10 प्रतिशत से भी कम होना निश्चित रूप से चिंताजनक है। लोकसभा में विधि एवं न्याय मंत्री किरण रिजिजु द्वारा लोकसभा में पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार जिन राज्यों में यह आंकड़ा 10 प्रतिशत से अधिक है, वहां भी यह 15 प्रतिशत से कम ही है। हालात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पूरे देश में विधानसभाओं में महिला विधायकों का औसत केवल 8 प्रतिशत है। संसद में भी यह आंकड़ा 15 प्रतिशत से कम ही है, जबकि वैश्विक औसत 25 प्रतिशत से अधिक है। जाहिर है कि आधी आबादी को उसका हक देने की बातें तो बहुत जोर-शोर से की जाती हैं लेकिन उन्हें न तो समाज में अभी तक व्यावहारिक रूप से बराबरी का दर्जा मिल पाया है और न राजनीति में। 

लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने के उद्देश्य से महिला आरक्षण विधेयक का करीब ढाई दशक बाद भी पारित नहीं हो पाना इसका उदाहरण है। महिला आरक्षण विधेयक को पहली बार 1996 में संसद में पेश किया गया था।. इसके बाद इसे कई बार पेश किया गया। साल 2010 में इस विधेयक को राज्यसभा में पारित किया गया था, लेकिन 15 वीं लोकसभा के भंग होने के बाद 2014 में इस विधेयक की मियाद खत्म हो गई। ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2021 बताती है कि राजनीतिक सशक्तिकरण सूचकांक में भारत के प्रदर्शन में गिरावट आई है और महिला मंत्रियों की संख्या वर्ष 2019 के 23.1 प्रतिशत के मुकाबले वर्ष 2021 में घटकर 9.1 प्रतिशत तक पहुंच गई। 

विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) की जुलाई 2022 की रिपोर्ट कहती है कि लैंगिक समानता की विश्व रैंकिंग में भारत 146 देशों में 135वें स्थान पर खिसक गया है। डब्ल्यूईएफ ने इस गिरावट के पीछे भारत के राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति कमजोर होने को कारण बताया है। हालांकि संविधान में 73वां संशोधन करके, पंचायती राज अधिनियम-1992 के अंतर्गत महिलाओं को पंचायतों में एक तिहाई (33 प्रतिशत) आरक्षण दिया गया है और वर्तमान में कई राज्यों ने आरक्षण की इस सीमा को बढ़ाकर 50 प्रतिशत तक दिया है, लेकिन वहां दिक्कत यह है कि महिलाओं के लिए सीट आरक्षित होने के बावजूद, कई बार निर्वाचित महिलाओं के पति ही व्यवहार में कामकाज देखते हैं। इसके बावजूद इस अधिनियम के कारण वहां महिलाओं की स्थिति में महत्वपूर्ण सुधार हुआ है।

 राजनीति में ऊपरी स्तर पर महिलाओं को ज्यादा प्रतिनिधित्व दिया जाए तो निचले स्तर पर भी महिलाओं का और भी सशक्तिकरण होने की उम्मीद की जा सकती है लेकिन विडंबना यह है कि किसी न किसी बहाने से वहां महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है।  हकीकत तो यह है कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से राजनीति के भी अपेक्षाकृत शांत और सभ्य होने की उम्मीद बढ़ेगी, आज की तरह उसमें हंगामे को प्रधानता नहीं मिलेगी। हालांकि कुछ प्रमुख पदों पर आज भी भारतीय महिलाएं मौजूद हैं लेकिन अगर वास्तव में महिलाओं की स्थित को मजबूत करना है तो सिर्फ प्रतीकात्मक कदमों से काम नहीं चलेगा। जनसंख्या के अनुपात में महिलाओं को जब तक उनका हक नहीं मिलेगा, तब तक समाज का संतुलित विकास हो पाना मुमकिन नहीं है। 

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