delhi air pollution: दिल्ली-एनसीआर फिर सांसों के संकट से रूबरू है. दिसंबर में ही दूसरी बार बढ़ते वायु प्रदूषण से निपटने के तात्कालिक उपायों के तौर पर ग्रेडेड रेस्पांस एक्शन प्लान (ग्रेप)-4 लागू करना पड़ा है, क्योंकि वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) फिर से 450 के पार चला गया. 301 पार करते ही खतरनाक की श्रेणी में पहुंच जानेवाला एक्यूआई 20 दिसंबर की सुबह दिल्ली में 588 पर था. कमर्शियल वाहन छोड़िए, बीएस-3 पेट्रोल और बीएस-4 डीजल निजी कार तक पर प्रतिबंध है-भले ही आपके पास प्रदूषण नियंत्रण प्रमाणपत्र हो और आपकी कार ‘फिटनेस’ अवधि में.
टैक्सी और दुपहिया वाहनों पर ऐसी कोई पाबंदी नहीं है. क्या यह अतार्किक नहीं है? कक्षाएं ऑनलाइन हैं तो ‘वर्क फ्रॉम होम’ का फरमान जारी है. हर काम घर से नहीं हो सकता. जो हो सकते हैं, उनकी भी अनुमति ऑफिस की मर्जी पर निर्भर है. निर्माण कार्य आदि तो ग्रेप की शुरुआती स्टेज पर ही बंद हो जाते हैं.
निर्माण-श्रमिकों को आर्थिक राहत की बात कही जाती है, पर वह कितनों को कितनी मिल पाती है, यह अध्ययन का विषय है. बेशक जब हालात बेकाबू हो जाएं, जैसे कि एक्यूआई फिर 450 के पार चले जाने पर हो गए तो आपातकालीन कदम उठाने ही पड़ते हैं, पर उनसे जन-जीवन पर पड़नेवाले नकारात्मक असर के अध्ययन की जहमत कोई नहीं उठाता.
यह समस्या पहली बार भी नहीं. हर साल कम-से-कम दो-तीन बार ऐसी नौबत आती है, जब आपातकालीन कदम उठाए जाते हैं. आखिर सरकारें आग भड़कने पर ही कुआं खोदने की मानसिकता से उबर कर आग लगने से रोकने के लिए ही जरूरी एहतियाती कदम क्यों नहीं उठातीं?
क्या यह शर्मनाक नहीं कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र और पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था भारत की राजधानी दिल्ली के निवासियों को पिछले साल सिर्फ दो दिन ही सांस लेने लायक साफ हवा मिली? सच यह है कि देश में एक भी शहर ऐसा नहीं, जिसकी हवा साफ यानी स्वास्थ्य मानकों के मुताबिक सांस लेने लायक हो.
यह खुलासा अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लैंसेट प्लेनेटरी हेल्थ की ताजा रिसर्च में किया गया है. रिसर्च स्पष्ट कहती है कि भारत के एक भी शहर की हवा सांस लेने लायक नहीं और वायु प्रदूषण का स्तर इतना खराब है कि कोई क्षेत्र ऐसा नहीं बचा, जहां हवा का वार्षिक स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानकों पर खरा उतरता हो.